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जैनधर्मामृत : तीनोंका वेष एक है, तथापि ये तीनों ही मुनिकुंजर विशिष्ट विशिष्ट पदोंपर आरूढ़ होनेके कारण उक्त संज्ञाओंके धारक हैं ॥८०|
तीनों ही परमेष्टियों में साधुपंना समान है एको हेतुः क्रियाप्येका देपश्चैको वहिः समः । तपो द्वादशधा चैकं व्रतं चैकञ्च पञ्चधा ।।८१॥ त्रयोदशविधं चापि चारित्रं समतेकधा । मूलोत्तरगुणाश्चैके संयमोऽप्येकधा मतः ॥२॥ परीपहोपसर्गाणां सहनं च समं स्मृतम् । आहारादिविधिश्चैकश्चर्यास्थानासनादयः ।।३।। मार्गो मोक्षस्य सदृष्टिानं चारित्रमात्मनः । रत्नत्रयं समं तेषामपि चान्तर्बहिःस्थितम् ॥४॥ ध्याता ध्यानं च ध्येयं च ज्ञाता ज्ञानं च ज्ञेयसात् ।
चतुर्धाऽऽराधना चापि तुल्या क्रोधादिजिष्णुता ॥२५॥ आचार्य, उपाध्याय और साधु, इन तीनों परमेष्ठियोंका अन्तरंग कारण समान है, अथीत् प्रत्याख्यानावरण कषायके क्षयोपशम सबके हैं, क्रिया भी तीनोंकी एक समान है, बाह्य वेष भी एक है, वारह प्रकारका तप भी तीनोंके समान है, पाँच प्रकारका महाव्रत धारण भी तीनोंके एक समान है, तेरह प्रकारके चारित्रका पालन भी समान है, समता भी समान है, मूलगुण और उत्तरगुण भी समान ही हैं, संयम भी समान है, परीषह और उपसर्गोंका सहना भी समान है, आहार आदिकी विधि भी तीनोंकी समान है, चर्या, स्थान, आसन आदि भी समान हैं, तीनोंका मोक्षमार्ग भी समान, है, अन्तरंग और बहिरंग सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्रस्वरूप रत्नत्रय भी तीनोंके समान हैं, ध्याता, ध्यान, ध्येय, ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेय और