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________________ . द्वितीय अध्याय । , . . -. - - संसारमें परिभ्रमण करते हुए लाखों-करोड़ों जातियोंमें जन्म ले लेकर असंख्य वार प्राप्त हुई. अपनी नीच, ऊँच और मध्यम . पर्यायों या अवस्थाओंको जान कर कौन बुद्धिमान् जातिमदको करेगा ? क्योंकि कर्मके वशसे ये संसारी प्राणी इन्द्रियोंकी रचनासे उत्पन्न होने वाली नाना जातियोंमें सदा जन्म लेता रहता है। यहाँ किसकी कौन जाति शाश्वत या स्थायी है ?. अतः जातिका मद नहीं करना चाहिए ॥३७-३८॥. .. . कुलमद न करनेका उपदेश - यस्याशुद्धं शीलं प्रयोजनं तस्य किं कुलमदेन । । स्वगुणाभ्यलङ्कृतस्य हि किं शीलवतः कुलमदेन ॥३६॥ रूपवलश्रुतिमतिशीलविभवपरिवर्जितांस्तथा दृष्ट्वा । . . विपुलकुलोत्पन्नानपि ननु कुलमानः परित्याज्यः ॥४०॥ जिस मनुष्यका शील अर्थात् आचरण अशुद्ध या दूषित है, उसे कुलका मद करनेसे क्या प्रयोजन है ? और जो शीलवान् है, वह अपने ही गुणोंसे भूषित है, उसे भी कुलका मद करनेसे क्या लाभ है ? क्योंकि उसका सन्मान तो कुलमदके किये विना स्वयं ही होता है। तथा लोक-प्रसिद्ध विशाल या महान् कुलोंमें उत्पन्न . हुए मनुष्योंको भी रूप, बल, शास्त्र-ज्ञान, बुद्धि, शील, सदाचार और सम्पत्तिसे रहित या हीन देखकर कुलके मदका परित्याग ही करना चाहिए ॥३९-४०॥ ... - . रूपमद करनेका उपदेश . . . . . . . कः शुक्रशोणितसमुद्भवस्य सततं चयापचयिकस्य । .. रोगजरापाश्रयिणो मदावकाशोऽस्ति रूपस्य ॥४१॥ . .
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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