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जैनधर्मामृत ...... क्षुत्तष्णा-शीतोष्णप्रभृतिषु नानाविधेषु भावेपु।
द्रव्येषु पुरीपादिपु विचिकित्सा नैव करणीया ॥१३॥ स्वभावसे अपवित्र किन्तु रत्नत्रय धारण करनेसे पवित्र हुए, शरीरमें ग्लानि न करके उसमें रहनेवाले आत्माके गुणोंमें प्रीति . करना निर्विचिकित्सा अंग है । अतएव भूख-प्यास, शीत-उप्ण आदि नाना प्रकारके विकृति-कारक संयोगोंके मिलनेपर चित्तको खिन्न नहीं करना; और वस्तु-स्वभावको जानकर मल-मूत्रादि पदार्थों में ग्लानि नहीं करना चाहिए ॥१२-१३।।
४ अमूढदृष्टि-अंग : कापथे पथि दुःखानां कापथस्थेऽप्यसम्मतिः ।
असम्पृक्तिरनुत्कीतिरमूढा दृष्टिरुच्यते ॥१४॥ लोके शास्त्राभासे समयाभासे च देवताभासे । .
नित्यमपि तत्त्वरुचिना कर्त्तव्यममूढदृष्टित्वम् ॥१५॥ दुःखोंके मार्गभूत कुमार्गकी और कुमार्ग पर चलनेवाले व्यक्तिकी मनसे सराहना नहीं करना, वचनसे प्रशंसा नहीं करना और कायसे अनुमोदना नहीं करना सो अमूढदृष्टि अंग है। अतएव तत्त्वोंमें रुचि रखनेवाले सम्यग्दृष्टि पुरुषको प्रपंच-वर्धक लौकिक रूढ़ियोमें, कल्पित शास्त्रोंमें; मिथ्या सिद्धान्तोंमें और रागी-द्वेषी देवताओंमें नित्य ही अपनी दृष्टिको अमूढ़ रखना चाहिए ॥१४-१५॥ .
भावार्थ-इस अंगका अभिप्राय यह है कि जब यह भलीभाँति विदित हो जाय अमुक मार्ग सुमार्ग नहीं, किन्तु कुमार्ग है, अमुक मत कुमत है, अमुक देवता झूठा है, और अमुक व्यक्ति कुमार्ग पर चल रहा है, तब उसकी मन-वचन या कायसे की गई