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जैनधर्मामृत
नहीं होता, किन्तु अनासक्त ही रहता है। वह भीतरसे सभी प्राणियोंको अपने समान ही देखने लगता है और उनके सुख-दुःखको अपने समान मानने लगता है। वह सांसारिक दुःखोंके या सुखांके अवसरों पर रोते या हँसते हुए मी भीतरसे संविग्न ही रहता है और भावना किया करता है कि कब वह अवसर आवे, जब कि मैं इन सांसारिक बन्धनोंसे छूटकर सत्-चित्-आनन्दमय अपने आत्मामें ही निमग्न रहूँ ? कुछ जीव ऐसे भी होते हैं, जो कि आत्मसाक्षात्कार होनेके पश्चात् हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रहसंचय रूप पंच पापोंके करनेका आंशिक रूपसे या पूर्णरूपसे परित्याग कर देते हैं, बाहरी अनाचारको छोड़ देते हैं और सदाचारका पालन करने लगते हैं। जो पापोंका-बुरे कार्योंके करनेकाआंशिक रूपसे परित्याग करते हैं, उन्हें जैन शास्त्रोंकी परिभाषामें देश संयत, या अणुव्रती श्रावक कहते हैं। जो सर्व प्रकारके पापोंके करनेका मन-वचन-कायसे और कृत-कारित-अनुमोदनासे परित्याग कर देते हैं किन्तु व्यवहारवश बाहरी कार्योंको करते रहते हैं, उन्हें महाव्रती प्रमत्तविरत, या सकलसंयमी साधु कहते हैं । इन अणुव्रती श्रावकों और महाव्रती प्रमत्तविरत सोधुओंको मध्यम अन्तरात्मा कहते हैं। जो अन्तर्दृष्टि प्राप्त करनेके अनन्तर बाहरी सभी भलीबुरी प्रवृत्तियोंको छोड़कर निरन्तर ध्यान या समाधिमें निरत रहते हैं, ऐसे सातवें गुणस्थानसे लेकर वारहवें गुणस्थान तकके साधुओंको उत्कृष्ट अन्तरात्मा कहते हैं। कोई भी व्यक्ति ध्यान या समाधिमें अहर्निश-चौवीसों घण्टे--अवस्थित नहीं रह सकता; क्योंकि कुछ क्षण ही आत्म-स्थिरता सम्भव है । इसलिए साधु जितने समय तक