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________________ 346 लैनधर्मामृत वैयावृत्त्यमनिर्हाणिः वैराग्यस्य परां काष्टां व्यवहारे सुपुतो यः व्याध्याद्युपनिपातेऽपि व्युत्थानावस्थायां व्रताकिलात्रवेत्पुण्यं तत्त्वार्थ० 4,51 पंचाध्या० 2,71 समाधि० 78 तत्त्वार्थ० 7,18 पुरुषार्थ० 46 तत्त्वार्थ० 4,56 6,43 2,100 14,108 12,16 4,10 6,51 6,10 7,11 शब्दरूपरसस्पर्श शमक्षयवराचीनः शम्बूकः शङ्खशुक्तिश्च शयनासनगसंवाहन शरीरकञ्चुकेनात्मा शरीरे वाचि चात्मानं शारीरमानसागन्तु शिवं परमकल्याणं शिवमजग्मरुजमक्षय शीलवतानतीचारो शुक्लं पृथक्त्वमाद्यं शुद्धैर्धनैर्विवर्धन्ते शुद्धयष्टके तथा धर्म शुभं शरीरं दिव्यांश्च शुभाशुभोपयोगाख्य शृङ्खलावागुगपाश शृण्वन्नप्यन्यतः कामं शेषकर्मफलापेक्षः तत्वार्थ० 3,16 सं० पंचसं० 1,34 तत्त्वार्थ० 2,53 प्रशमरति० 45 समाधि० 68 समाधि 0 54 यशस्ति० प्रा० 6 पृ० 323 आप्तस्व० 24 रत्नक० 40 तत्त्वार्थ० 4,50 , 7,44 आत्मानु० 45 तत्त्वार्थ० 5,10 समाधि० 42 तत्त्वार्थ० 5,51 , 4,23 समाधि० 81 तत्त्वार्थ० 8,25 14,68 14,84 4,58 1,32 2,114 6,42 12,30 14,18 10,5 14,72 10,20 6,15 14,111 13, . . . .. .
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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