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नैनधर्मामृत मूलमात्र क्षत्रचूड़ामणिका सर्वप्रथम संस्करण कुप्पू स्वामी द्वारा सम्पादित होकर सरस्वती विलास सीरिज तंजोरसे सन् १६०३ में प्रकाशित हुअा था। उसके पश्चात् अत्र तक इस ग्रन्यके अनेक संस्करण हिन्दी अनुवादके साथ विभिन्न संस्थाओंसे निकले हैं।
१०. शुभचन्द्र और ज्ञानार्णव संसारके विषय-भोगोंमें अासक्त जीवोंको सम्बोधन करते हुए इस ग्रन्थमें मुनिधर्मका बहुत ही सुन्दर ढंगसे विस्तारके साथ वर्णन किया गया है। साथ ही संसारसे विरक्ति बनी रहनेके लिए अनित्य-अशरण आदि द्वादश अनुप्रेक्षाओंका, तथा धर्ममें दृढ़ता त्थिर रखने के लिए ध्यान, ध्याता, ध्येय और उनके विविध अंगोंका बहुत ही सुन्दर विवेचन किया गया है । इस ग्रन्थमें ४२ प्रकरण हैं और उनकी समग्र श्लोक-संख्या दो हज़ारसे भी अधिक है। ध्यानके विविध अंगोंका जैसा विशद एवं अनुपम वर्णन इस ग्रन्थमें किया गया है, वैसा अन्यत्र बहुत कम मिलेगा। ग्रन्थकारने ध्यान और समाधिसे सम्बन्ध रखनेवाले अपनेसे पूर्ववर्ती अनेक ग्रन्योंके बहुभाग श्लोकोंका और उनके विषयोंका इस ग्रन्थकी रचनामें भरपूर उपयोग किया है । इस ग्रन्थका तेईसवाँ और बत्तीसवाँ प्रकरण पूज्यपाटके इष्टोपदेश और समाधितन्त्रके स्पष्टतः आभारी हैं। इसी प्रकार बारह भावनाओंवाले सभी प्रकरण स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा और बारहअणुवेक्वाके आभारी हैं और इस प्रकार यह ज्ञानार्णवमें अनेक ग्रन्यरूप नदियोंका अपने भीतर समावेश करता हुआ सचमुच अपने नामको सार्थक करता है । जिज्ञासु और धर्मपिपासु जनोंके लिए यह वास्तविक ज्ञानार्णव है, मेद केवल इतना ही है कि जलके उस समुद्रका पानी खारा होता है, जब कि इस ज्ञानार्णवका जल अमृतके तुल्य मधुर, हितकर और व्यक्तिको जन्म-जरा-मरणादि महारोगोंसे छुड़ाकर सदाके लिए नोरोग एवं अमर बना देनेवाला है। जिन पुरुषोंने इस ज्ञानार्णवमें अवगाहन