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जैनधर्मामृत जो चार बार तीन-तीन आवर्त, और चार प्रणाम करके यथाजात बालकके समान निर्विकार वनकर खगासन या पद्मासनसे वैठकर मन-वचन-काय शुद्ध करके तीनों संध्याओंमें देव-गुरु-शास्त्रकी वन्दना और प्रतिक्रमण आदि करता है, वह सामायिक प्रतिमाधारी श्रावक कहलाता है ॥१३॥
विशेषार्थ-दोनों हाथोंको जोड़कर बाईं ओरसे दाई ओर घुमानेको आवर्त कहते हैं । सामायिक करनेके पूर्व एक-एक दिशामें तीन-तीन आवर्त करना चाहिए और आवर्तके अन्तमें एक नमस्कार करना चाहिए । इस प्रकार चारों दिशाओं सम्बन्धी बारह आवर्त
और चार नमस्कार हो जाते हैं। पुनः बैठकर या खड़े होकर सामायिक करना चाहिए। प्रातः, मध्याह्न और सायंकाल देववन्दना करना, बारह भावनाओंका चिन्तवन करना, अपने दोषोंकी आलोचना करते हुए आत्मनिरीक्षण करना, प्रतिक्रमण करना आदि सर्व क्रियाएँ सामायिकके ही अन्तर्गत हैं । सामायिकका उत्कृष्टकाल ६ घड़ी, मध्यम ४ घड़ी और जघन्य २ घड़ी है।
__४ प्रोषधप्रतिमा पर्वदिनेषु चतुर्वपि मासे-मासे स्वशक्तिमनिगुह्य । ...,
प्रोपधनियमविधायी प्रणधिपरः प्रोपधानशनः ।।१३२॥ प्रत्येक मासकी दो अष्टमी और दो चतुर्दशी इन चारों ही पों में अपनी शक्तिको नहीं छिपाकर सावधान हो प्रोषधोपवास करने वाला प्रोषधनियम-विधायी श्रावक कहलता है ॥१३२॥ .
भावार्थ:-एक बार भोजन करनेको प्रोषध कहते हैं और सर्व
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