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________________ १४२ जैनधर्मामृत संयत अर्थात् देशचारित्रका धारक श्रावक मध्यम पात्र है और सकल चारित्रका धारक साधु उत्कृष्ट पात्र है॥१११॥ हिंसायाः पर्यायो लोभोऽत्र निरस्यते यतो दाने । तस्मादतिथिवितरणं हिंसाव्युपरमणमेवेष्टम् ॥११२॥ यतः इस दानमें हिंसाका पर्यायी लोभ नष्ट किया जाता है, इसलिए अतिथिको दान देना, दूसरे शब्दोंमें हिंसाका परित्याग ही माना गया है ॥११२॥ अतिथिको दान नहीं देनेवाला पुरुष लोभी है, अतः हिंसक है गृहमागताय गुणिने मधुकरवृत्त्या परानपीढयते । वितरति यो नातिथये स कथं न हि लोभवान् भवति ।।११३।। जो गृहस्थ घर पर आये हुए संयमादि गुणोंसे युक्त, और भ्रामरी वृत्तिसे दूसरोंको पीड़ित नहीं करनेवाले अतिथि साधुके लिए भोजनादिक वितरण नहीं करता है, वह लोभवान् कैसे नहीं है ? अपि तु है ही ॥११३॥ किन्तु दान देनेवाला यतः लोभ-परित्यागी है, अतः अहिंसक है कृतमात्मार्थ मुनये ददाति भक्तमिति भावितस्त्यागः । अरतिविषादविमुक्तः शिथिलितलोभो भवत्यहिंसैव ॥११॥ जो अपने लिए बनाये हुए भोजनको मुनिके लिए देता है, वह भावपूर्वक किया गया, अरति और विपादसे विमुक्त और लोभको शिथिल करनेवाला दान अहिंसारूप ही होता है ||११४॥ इस प्रकार चारों शिक्षात्रतोंका वर्णन समाप्त हुआ।
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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