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जैनधर्मामृत
उससे अधिक वस्तुओंमें निस्पृहता रखना सो इच्छा परिमाण नाम . का पाँचवाँ परिग्रहपरिमाणवत है ॥६९॥
सन्निधौ निधयस्तस्य कामगव्यनुगामिनी ।
अमराः किङ्करायन्ते सन्तोपो यस्य भूषणम् ॥७०॥ जिस पुरुषको सन्तोपरूपी आभूषण प्राप्त है, उसके समीपमें . सदा निधियां विद्यमान रहती हैं, कामधेनु अनुगामिनी बन जाती है और अमर किंकर बन जाते हैं |७०॥
सेवातन्द्राः सुरेन्द्राद्याः क्रूरो मारश्च किङ्करः ।
यस्यामद्भुतमाहात्म्यसङ्गन्ताऽसङ्गता ततः ॥७॥ जिस पुरुषको अद्भुत माहात्म्यवाली असंगता-निष्परिग्रहता प्राप्त हो चुकी है, उसकी सुरेन्द्र आदि सेवा करते हैं और कर कामदेव भी किंकर बन जाता है |७१॥
संसारमूलमारम्भास्तेपा हेतुः परिग्रहः ।
तस्मादुपासका कुर्यादल्पमल्पं परिग्रहम् ॥७२॥ संसारके मूलकारण आरम्भ हैं, और उन आरम्भीका कारण परिग्रह है, इसलिए श्रावकको चाहिए कि वह अपने परिग्रहको दिनप्रतिदिन कम करता जावे ॥७२॥
अब रात्रि-भोजनके दोषोंका वर्णन करते हैं, क्योंकि रात्रिभोजनका त्याग किये विना न पाँच अणुव्रतोंका धारण ही हो सकता है और न आठ मूलगुणोंका परिपालन ही। इसलिए आत्महितैषी पुरुपका कर्तव्य है कि महान् अनर्थोंका कारण रात्रि-भोजन अवश्य ही त्याग करे।