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चतुर्थ अध्याय
१२५ नरकावासोंमें उत्पन्न होता है इसलिए बुद्धिमान मनुष्योंको चाहिए कि वे झूठ बोलनेका परित्याग करें ॥५७॥
स्थूलमलीकं न वदति न परान् वादयति सत्यमपि विपदे।
यत्तद्वदन्ति सन्तः स्थूलमृपावादवैरमणम् ॥५॥ जो स्थूल झूठ न तो स्वयं बोलता है और न दूसरोंसे बुलवाता है, तथा भयंकर विपत्तिके समय सत्यको भी न बोलता है और न दूसरोंसे बुलवाता है, उसे सन्त पुरुषोंने स्थूल मृषावादसे विरक्त होना अर्थात् सत्याणुव्रत कहा है ॥५॥ - भावार्थ-न्यतः गृहस्थ स्थूल सत्यव्रतका धारक होता है, अतः वह ऐसे सत्यको भी नहीं बोलता है, जिसके बोलनेसे किसी जीवका घात हो, धर्मका अपमान हो अथवा जाति या देशका विनाश सम्भव हो । हाँ यह अवश्य है कि वह धर्म-विरुद्ध, लोक विरुद्ध या न्याय विरुद्ध बात कभी नहीं कहेगा।
अचौर्याणुव्रतका स्वरूप दिवसे वा रजन्यां वा स्वप्ने वा जागरेऽपि वा। ..... - सशल्य इव चौर्येण नैति स्वास्थ्यं नरः क्वचित् ॥५६॥ __ चोरी करनेके कारण मनुष्य दिनमें, रातमें, सोते समय और जागते समय शरीरमें चुभी शल्यके समान कहीं भी और कभी भी स्वस्थता या शान्तिको नहीं प्राप्त होता है ॥५९॥ . ..
परार्थग्रहणे येषां नियमः शुद्धचेतसाम् । . ... __ अभ्यायान्ति श्रियस्तेषां स्वयमेव स्वयंवराः ॥६०॥ जिन शुद्ध हृदय वाले पुरुषोंके पराये धनके ग्रहण करनेका