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चतुर्थ अध्याय किसीका आपरेशन कर रहा हो, और कदाचित् वह रोगी मर जाय, तो डॉक्टर अहिंसाके ही फलको भोगेगा।
' इति विविधभङ्गगहने सुदुस्तरे मार्गमूढदृष्टीनाम् ।
गुरवो भवन्ति शरणं प्रबुद्धनयचक्रसञ्चाराः ॥२२॥ इस प्रकार अत्यन्त कठिन और विविध भंगोसे गहन वनमें मार्ग-मूढ दृष्टिवाले जनोंको अनेक प्रकारके नयचक्रके संचारके जानकार गुरुजन ही शरण होते हैं ॥२२॥
अत्यन्तनिशितधारं दुरासदं जिनवरस्य नयचक्रम् । '.. खण्डयति धार्यमाणं मूर्धानं झटिति दुर्विदग्धानाम् ॥२३॥
जिनेन्द्र भगवान्का अत्यन्त तीक्ष्ण धारवाला दुःसाध्य नय-चक्र, धारण करनेवाले अज्ञानी पुरुषोंके मस्तकको शीघ्र ही खण्ड-खण्ड कर देता है ॥२३॥ . भावार्थ-जैनदर्शनके नय-भेदको समझना बहुत कठिन है।
जो पुरुष विना समझे नय-चक्रमें प्रवेश करते हैं, वे लाभके बदले हानि ही उठाते हैं। .
अवबुध्य हिंस्य-हिंसक-हिंसा-हिंसाफलानि तत्त्वेन । नित्यमवगृहमानैर्निजशक्त्या त्यज्यतां हिंसा ॥२४॥
आत्म-संरक्षणमें सावधान पुरुषोंको तत्त्वतः हिंस्य, हिंसक, हिंसा और हिंसाके फलको जानकर अपनी शक्तिके अनुसार हिंसाका अवश्य ही त्याग करना चाहिए ॥२४॥
विशेषार्थ-जिनकी हिंसा की जाती है, ऐसे द्रव्यप्राण'इन्द्रियादिक, भावप्राण-ज्ञान-दर्शनादिक और उनके धारक जीवोंको हिंस्य कहते हैं। हिंसा करनेवाले जीवको हिंसक कहते हैं।