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________________ ११५ चतुर्थ अध्याय किसीका आपरेशन कर रहा हो, और कदाचित् वह रोगी मर जाय, तो डॉक्टर अहिंसाके ही फलको भोगेगा। ' इति विविधभङ्गगहने सुदुस्तरे मार्गमूढदृष्टीनाम् । गुरवो भवन्ति शरणं प्रबुद्धनयचक्रसञ्चाराः ॥२२॥ इस प्रकार अत्यन्त कठिन और विविध भंगोसे गहन वनमें मार्ग-मूढ दृष्टिवाले जनोंको अनेक प्रकारके नयचक्रके संचारके जानकार गुरुजन ही शरण होते हैं ॥२२॥ अत्यन्तनिशितधारं दुरासदं जिनवरस्य नयचक्रम् । '.. खण्डयति धार्यमाणं मूर्धानं झटिति दुर्विदग्धानाम् ॥२३॥ जिनेन्द्र भगवान्का अत्यन्त तीक्ष्ण धारवाला दुःसाध्य नय-चक्र, धारण करनेवाले अज्ञानी पुरुषोंके मस्तकको शीघ्र ही खण्ड-खण्ड कर देता है ॥२३॥ . भावार्थ-जैनदर्शनके नय-भेदको समझना बहुत कठिन है। जो पुरुष विना समझे नय-चक्रमें प्रवेश करते हैं, वे लाभके बदले हानि ही उठाते हैं। . अवबुध्य हिंस्य-हिंसक-हिंसा-हिंसाफलानि तत्त्वेन । नित्यमवगृहमानैर्निजशक्त्या त्यज्यतां हिंसा ॥२४॥ आत्म-संरक्षणमें सावधान पुरुषोंको तत्त्वतः हिंस्य, हिंसक, हिंसा और हिंसाके फलको जानकर अपनी शक्तिके अनुसार हिंसाका अवश्य ही त्याग करना चाहिए ॥२४॥ विशेषार्थ-जिनकी हिंसा की जाती है, ऐसे द्रव्यप्राण'इन्द्रियादिक, भावप्राण-ज्ञान-दर्शनादिक और उनके धारक जीवोंको हिंस्य कहते हैं। हिंसा करनेवाले जीवको हिंसक कहते हैं।
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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