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________________ . ग्रन्थ और ग्रन्थकार-परिचय इष्टोपदेशमें आत्माके शुद्ध स्वरूपकी प्रातिके इच्छुकजनोंको बहुत ही “उद्बोधक एवं सुन्दर ढंगसे उनके अभीष्टका उपदेश ५१ श्लोकों द्वारा दिया गया है। इस ग्रन्थसे जैनधर्मामृतके चौदहवें अध्यायमें ३० श्लोकोंका संकलन किया गया है। ___ उक्त दोनों ग्रन्थोंके रचयिता देवनन्दि अपरनाम पूज्यपाद आचार्य • हैं । ये बहुश्रुत विद्वान् थे। इन्होंने अध्यात्म और दार्शनिक ग्रन्थोंके - अतिरिक्त व्याकरण, सिद्धान्त, वैद्यक आदि विभिन्न विषयोंपर स्वतन्त्र ग्रन्थोंकी रचना की है। उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्रपर सर्वार्थसिद्धि नामसे प्रसिद्ध एक बहुत ही सुन्दर टीका लिखी है, जो कि तत्त्वार्थसूत्रके परवर्ती टीकाकारों के लिए आधारभूत सिद्ध हुई है। ___आ० पूज्यपादका समय विक्रमकी पाँचवीं-छठी शताब्दी है । शक सं० ३८८ (वि० सं० ५२३ ) में लिखे गये मर्करा (कुर्ग) के ताम्रपत्रमें गंगवंशीय राजा अविनीतके उल्लेखके साथ कुन्दकुन्दान्वय और देशीयगण के मुनियोंकी परम्परा दी गई है। अविनीतके पुत्रका नाम दुविनीत था और वह पूज्यपादका शिष्य था। दुर्विनीतका राज्यकाल वि० सं० ५३८ के लगभग माना जाता है। अतएव पूज्यपादका समय विक्रमकी पाँचवीं शताब्दीके उत्तरार्ध और छठी शताब्दीके पूर्वार्धके बीचमें सिद्ध होता है । समाधितन्त्रपर आ० प्रभाचन्द्रने और इष्टोपदेशपर पण्डितप्रवर आशाधरने संस्कृत टीका लिखी है। इन दोनों टीकाओं और हिन्दी अनुवादके साथ उक्त दोनों ग्रन्थ वीर सेवामन्दिर, २१ दरियागंज दिल्लीसे सन् १९५४ में एक ही जिल्दमें प्रकाशित हुए हैं। १ देखो, भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसीसे प्रकाशित सर्वार्थसिद्धिकी प्रस्तावना पृ० ९६ । . . . . . . .
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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