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० चतुर्थ अध्याय : संक्षिप्त सार • सम्यग्ज्ञान प्राप्त करनेके पश्चात् सम्यकचारित्रको धारण करनेकी . आवश्यकता बतलाई गई है, क्योंकि जब तक सदाचारका पालन नहीं किया जायगा, तब तक कोरा ज्ञान निरर्थक रहेगा । चारित्रपालन करनेके लिए आवश्यक है कि मनुष्य हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पाँचों पापोंका याचज्जीवनके लिए सर्वथा त्याग करे । यदि वह किन ही कारणोंसे पाँचों पापोंके सर्वथा त्याग करनेके लिए अपनेको असमर्थ पावे, तो कमसे कम स्थूल हिंसा का त्याग तो अवश्य करे, अर्थात् संकल्पपूर्वक किसी भी त्रस प्राणी को न मारे । क्योंकि मनुष्य के हृदयमें जब दूसरेको मारनेका कर भाव उत्पन्न होता है, उसी समय उसकी स्वाभाविक शान्तिका विनाश एवं आत्माका हनन होता है, फिर पीछे चाहे अन्य प्राणी की हिंसा हो, या न हो । हिंसा क्या वस्तु है, कौन सी हिंसा महान् दुष्फल देती है और कौन सी अल्पफल देती है इत्यादि बातोंका बहुत सुन्दर विवेचन इस अध्यायमें किया गया है और अन्तमें बतलाया गया है कि अहिंसाकी रक्षाके लिए न मनुष्यको झूठ बोलना चाहिए, न चोरी करना चाहिए, न व्यभिचार करना चाहिए और न परिग्रहका संचय ही करना चाहिए । तथा हिंसाके पापसे वचनेके लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि वह मांस न खाये, मद्य न पीवे और हिंसाजन्य पदार्थोंका सेवन न करे, न उन फलोंको ही खाये, जिनके भीतर त्रस जीव स्पष्ट दृष्टिगोचर होते हैं।