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________________ ( ३३ ) मुक्ति। जिस समय संसारी जीव सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को अपने उद्योग से बढ़ाता जाता है । उस समय उसके पहले संचित कर्म उसके आत्मा से हटते जाते हैं । आगे के लिये कर्मो का आकर्षण घटता जाता है। उसका वह बराबर लगातार उद्योग यदि पूर्ण उन्नति पा जाता है तो उसका फल यह होता है कि उसके प्रात्मा से राग द्वेष, अज्ञान आदि दोष तथा सब कर्म, शरीर बिलकुल दूर हो जाते हैं। तब वह जीव स्वभाव से लोकाकाश के सब से ऊपरी भाग में पहुँच जाता है। मुक्त जीव में पूर्ण ज्ञान, सुख, शान्ति, वीर्य, आदि आत्मिक शुद्ध गुण प्रगट हो जाते हैं। संसार में फिर उसको वापिस पाकर शरीर नहीं धारण करना पड़ता। कुछ लोग यह समझ कर कि "मुक्त होते होते किसी दिन सारा संसार बिलकुल जीव शून्य खाली हो जायगा ।" मुक्त जीवों का फिर संसार में लौट आना मानते हैं । उनका यह मानना गलत है। क्योंकि संसारवर्ती जीव अनन्त हैं । अनन्त उस संख्या ( तादाद) को कहते हैं कि जिसमें अनन्त जोर देने पर जोड़ अनन्त ही भावे, जिसके साथ अनन्त का गुणा होने पर गुणनफल भी अनन्त हो और जिसमें अनन्त का भाग देने पर भजनफल भी अनन्त ही आवे तथा जिसमें से अनन्त घटा लेने पर बाकी भी अनन्त ही रहे। अनन्त शब्द का अर्थ हो यह है कि
SR No.010232
Book TitleJain Dharm Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjit Kumar
PublisherBharatiya Digambar Jain Shastrartha Sangh Chhavani
Publication Year1934
Total Pages53
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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