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________________ ८५ ॥ ० ॥ ४२ ॥ प्रहार करे गुरुरीप्रागन्यासुं, तिणसाधु नेवारकह्यामाख ॥ अठारमोनगि नातारोजाई, सांसो काटोमेटोमनरोधोख ॥ प्र० ॥ ४३ ॥ सबदरूपगंधरसफरसरी, साधारेइत्रत मूलनकायो । सुगमागधेन ठार में, चोरुन घवाइसूतरमायो ॥ ० ॥ ४४ ॥ साधारेइव्रत कहेपाखंमी, तिलकुमतीरी संगत दूरनिवारो ॥ इ मसांजलने उत्तम नरनारी, सरबव्रती गुरुमाथेधा रो ॥ श्र० ॥ ४५ ॥ दुहा ॥ समदृष्टी पांच, थोडीऋद्धी अलप मान ॥ मिथ्यादृष्टी जोडेंहुसी, बहुरिद्धबहुसनमा न ॥ १ ॥ समथोडाने मुढघणा. पांचमेरेचेन ॥ खलेईसाधुतो, करसीकुडाफेन ॥ २ ॥ साधुपपूजाहसी, ठाणा अंगसाख ॥ असा महिमाघी, श्रीवीरगयाबेनाख ॥ ३ ॥ कुदेवकुगुरुकुधर्म में, घणालोकर ह्याबंधहोय || ओलखने निरणोकरे, तेतोविरलाजोय ॥ ४ ॥ साधमारगबेसाकडो, नीलाखबरनकाय ॥ जीम दीवेमरेपतंगीयो, तिमपडेपगां मेजाय ॥ ५ ॥ घ 'णासाधने साधवी, श्रावक श्रावकालार ॥ उलटा
SR No.010224
Book TitleJain Dharm Gyan Prakashak Pustak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNana Dadaji Gund
PublisherNana Dadaji Gund
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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