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________________ १९० ज खाधुं शीयालणी, एवंती सुकुमाल ॥०॥ ॥७॥ इम अनेक ते नहरया, केहेता नावे पा र ॥वध परिसह जीतीने, सुख पाम्या श्रीकार॥न०॥८॥ इति वध परिसह ॥१३॥ दहा॥ जाचना परिसह जिन कह्यो, सपनो चतुर सुजाण ॥ हीनदीन वचन केहेबे नही, न ही जाचे वलि जाण ॥१॥अथ जाचना परिसह ॥ ___ढाल १४ मी ॥ जाचना परिसह श्री जिन वर कह्यो, जाचीने लेवे अपगार ॥ नविकजन ॥ उत्तराध्ययन दूजा अध्ययनमें, चतुर लेजो विचार ॥ नविकजन, जाचना परिसह श्री जिनवर कह्यो।। १॥ ए आंकणी ॥ असणादिक आहार चाहीजें, साधाने दूजो पाणी पीगण ।। न० ॥ खादिम जात कहि मेवा तणी, चोथी सादीम जाण ॥ नवि ०॥ जा० ॥ २ ॥ वस्त्र पात्र ने वली कांबलो, पाय पुंजणी ने रजोहरपुं जाणान०॥ पीढ पलंग शय्या ने संथारो, ओषध नेषध पीगण होनाजा॥३॥ दांत री शली श्रादि देइ करी, जाचीने लेवे प्रणगा · रहोः॥०॥ चतुर होवे ते चिंता नहीं करे,
SR No.010224
Book TitleJain Dharm Gyan Prakashak Pustak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNana Dadaji Gund
PublisherNana Dadaji Gund
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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