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________________ १७१ रूपोतो किणन्याय ॥ पांचेवरणपावेले इणन्या य॥६० जीवरूपीकेअरूपी ॥ श्ररूपीतेकिण न्याय ॥ पांचवरणनहींपावे इणन्याय ॥ ६१ धर्मास्तिकायजीवके अजीवजीवछे ॥ ६२ अधर्मास्तिजीवकेअजीव॥ अजीव ॥६३ श्रा काशास्तिजीवके अजीव ॥ अजीव ॥६४ कालजीवकेअजीव ॥ अजीव ॥६५ पुदगल जीवकेअजीव ॥ अजीव ॥६६ जीवजीवके अजीव ॥जीवतेतोजीव॥ ६७ धर्मास्तिसावध केनिरवद्य॥दोनुहीनहीं तेकिणन्याय ॥सावधनि रवद्यतोजीव धर्मास्तिजीव इणन्याय॥६८ अधर्मास्तिसावद्यकेनिरवंद्य ॥दोमुंहीनही तेकिण न्याय अजीवइणन्याय॥६९ आकाशास्तिसाव अकेनिरवद्य ॥दोनुहीनहिंतेकिणन्याय ॥ सायद्य निरवद्यतोजीव आकाशास्तिअजीव इणन्या य॥७० कालसावद्यकेनिरवद्य ॥ दोमुंहीनहीते किगन्याय ।। सावद्यनिरवद्यतोजीवछे कालम जीवले इणन्याय ॥ ७१ पुदगलसावंद्यके निरव छ ॥ दोनुनहीं तेकिणन्याय ॥ पुदगलतोअजी पछे सावधनिरवद्यजीव इणन्याय ॥७२ जी
SR No.010224
Book TitleJain Dharm Gyan Prakashak Pustak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNana Dadaji Gund
PublisherNana Dadaji Gund
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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