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( ४८ ), ननु कर्मणामात्यंतिकायः कथं संभवतीतिचेदित्थं-कर्मणां विपक्षस्य रत्नत्रयम्य परमप्रकर्षात तेपामात्यतिकः क्षयः स्यादिति । यस्य हि तारतम्यप्रकर्षस्तस्य क्वचित् परमप्रकर्षः सिद्धयति, यथोप्णस्य । तारतम्यप्रकर्षश्च कर्मणां विपक्षस्य संवरनिर्जरालक्षणस्यासंयतसम्यग्दृष्टयादिगुणस्थानेपु प्रमाणतो निश्चीयते तस्मात् परमात्मनि तस्य परमः प्रकर्षः सिद्धयतीति ज्ञायते । दु खादिप्रकर्षण व्यभिचारः इति चेन्न, दु:खस्य सप्तमनरकभूमौ नारकाणां परमप्रकर्षसिद्धः, सर्वार्थसिद्धौ देवानां सासारिकसुखपरमप्रकर्षवत् । न च क्रोधमानमायालोभानां तारतम्येन व्यभिचारसंभावना। तेषामभव्येपु मिथ्यादृष्टिषु च परमप्रकर्षसिद्ध: । ज्ञानहानिप्रकर्षणानेकान्त इति न वक्तव्य । तस्यापि
शंका-कर्मों का सर्वथा क्षय कैसे संभव है ?
समाधान:-सर्वथा क्षय इस प्रकार होता है। कर्मों के विरोधी रत्नत्रय रूप भावों का जब तीव्रतम उत्कर्ष होता है तो उन कर्मों का समूल क्षय हो जाता है। निश्चय से जिसका प्रकर्ष घटता बढ़ता है उसका कहीं न कहो परम प्रकर्प सिद्ध होता है जैसे गरमी का । संवर निर्जरा लक्षण रूप कर्मों के विरोधी रत्नत्रय का तरतम रूप प्रकर्प असयत सम्यग्दृष्टि वगैरह गुणस्थानो मे प्रमाण से निश्चित होता है। इसलिए परमात्मा मे उस रत्नत्रय का परम प्रकर्प सिद्ध होता है। दुःख वगैरह के प्रकर्ष से व्यभिचार होगा, ऐसा नही है। दुःख का भी सातवें नरक में नारकियों के परम प्रकर्ष सिद्ध है जिस तरह सांसारिक सुख का परम प्रकर्ष सर्वार्थसिद्धि में देवों के होता है। क्रोध, मान, माया, लोभ के तारतम्य से भी व्यभिचार दोष की संभावना नहीं है-उनका भी अभव्यों तथा मिथ्यादृष्टियों में परम प्रकर्ष सिद्ध है । ज्ञान की हानि के प्रकर्प से अनेकान्त होजायगा ऐसा भी नहीं करना चाहिए । घटेहुए उस