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( ४५ ) पंच वा कारणानि भवंति । मिथ्यात्वाविरतिप्रमादानां वस्तुतः कषायस्यैव भेदत्वात् ।
संवरतत्त्वम्-पूर्वोक्तकासवनिरोधे आत्मनो यः परिणामः कारणं भवति सः भावसंवरः । द्रव्यसंवरश्च तेषां कर्मास्रवाणां निरोधः । गुप्तिसमितिधर्मानप्रेक्षापरीषहजयचारित्राणि भावसंवरस्य भेदाः । एतेषां समवधाने मिथ्यात्वादिभावास्रवाणामभावात् । गुप्त्यादीनां सम्यग्दर्शनाद्यात्मकत्वात् मिथ्यात्वादीनांप्रतिपक्षत्वम् । कस्मिन गुणस्थाने कासां प्रकृतीनां संवरो भवतीति ग्रंथान्तराद् बोद्धव्यम्।
निर्जरातत्त्वम्-पूर्वसञ्चित कर्मपुद्गलद्रव्यं येनात्मपरिणामेन यथा कालं भुक्तरसं भूत्वा विशीर्यते सा भावनिर्जरा । एषा सविपाकभावनिर्जराऽपि प्रोच्यते । यत्तु कर्मपुद्गलद्रव्यं तपसा गए है। मिथ्यात्त्व, अविरति और प्रमाद वास्तव में तो कषाय के ही भेद है।
संवर तत्व आत्मा का जो चेतन परिणाम कर्मो के आश्रव को रोकने में कारण है वह भाव सवर है और उन कर्मों का आते हुए रुक जाना द्रव्य संवर है । गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परिषहजय और चारित भाव संवर के भेद है। इनके सद्भाव में मिथ्यात्व वगैरह भावाश्रवो का अभाव हो जाता है। गुप्ति वगैरह-सम्यक्त्व स्वरूप है अत मिथ्यात्व वगैरह की विरोधी है। किस गुणस्थान मे किन प्रकृतियो का संवर होता है यह दूसरे ग्रन्थों से जानना चाहिए।
निर्जरा-तत्त्व आत्मा के जिस भावसे कर्मरूपी पुद्गल यथा समय फल देकर नष्ट होते हैं वह भाव निर्जरा है । यह सविपाक भाव निर्जरा
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