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. ३६ ) तीवः । आदित्योदयाधपेक्षया आकाणप्रदेशपक्तिषु इत उदमिति व्यवहारोपपत्त:।
आस्त्रवबंधसंवरनिर्जरामोक्षतत्त्वम् । एतानि पंचतत्वानि पूर्वोक्तजीवाजीवतत्त्वद्वयनिमित्तकानि ।।
ननु तत्स्वानामेतत् क्रमस्य को हेतुरितियेत् सर्वस्य फलस्यास्माधीनस्वादादी जीवग्रहणम् । तदुपकारात्वासदनन्तरमजीवा भिधानं । तदुभयविपयत्मात्तदनंतरमासवग्रहरणम् । तत्पूर्वकरवात तत्पश्चाद् बंधवचनम् । कृतसंवरस्य बंधाभावाद तत्प्रत्यनीकप्रतिपत्त्यर्थतदनन्तरं संवरोक्तिः । संवरे सति निर्जरोपपत्तेः तदनुनिर्जराभिधानम् । अन्ते प्राप्यत्वान्मोक्षस्थान्ते वचनं कृतम् । यद्यपि जीवाजीवयोः सर्वेषामेषां पञ्चानामन्तवः कतुं शक्यवगैरह के उदयादि की अपेक्षा से प्रकाश प्रदेशों की पंक्तियों में यह अमुक दिशा है ऐसा व्यवहार बनता है।
प्रास्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये पाच तत्त्व और हैं । ये पाचों तत्व पूर्व वरिणत जीन और अजीव तत्व दोनों की पर्याय रूप हैं।
शकाः-जीवादि तत्त्वों के इस क्रम का भया कारण है ?
समाधानः-सम्पूर्ण फल के आरमाचीन होने से सर्व प्रथम जीव का ग्रहण किया है। जीप का उपकारक होने से जीव के बाद मजीव का नाम है। जीव अजीव दोनों का विषय होने से उनके बाद पाश्रव को लिया है। प्राश्रवपूर्वक होने से प्राश्रम के बाद बध का कथन है । संवर के द्वारा बन्ध का अभाव है इससे वन्धका विरोधी प्रदर्शित करने के लिए वन्ध के बाद संवर को कहा है । संवर के होने पर निर्जरा होती है इसलिए संवर के बाद निर्जरा का नाम है । अन्त में प्राप्त होने से मोक्ष तत्व का अन्त में कथन किया है । यद्यपि इन पांचो तस्वों का जीभ और अजीव दोनों में अन्तर्भाव किया जा सकता है तथापि