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लोकाका । अयं लोकानोकविभागस्तु धर्माधर्मास्तिकायसद्भावात् ज्ञातव्य । एतद्वयाभावे गतिस्थित्योरभावाल्लोकालोकविभागो न स्यात् । तस्मादुभयसद्भावाल्लोकालोकविभागस्थितिः । __एतानि चत्वारि अजीयद्रव्यारिण पूर्वोक्त जीवद्रव्यं च मिलित्वा पंचास्तिकाया. प्रोच्यते, प्रदेशबहुत्वात् काया इव काया इति । धर्माधर्मैकजीवानामसंख्येयप्रदेशत्वात, आकाशस्यानंतप्रदेशस्वात् । पुद्गलानां च संख्येयाऽसंख्येयाऽनंतप्रदेशस्वादिति । प्रदेशः किं लक्षणं इति चेत्-यावदाकाशं परमाणुना (अविभागिना पुद्गलांशेन) अवष्टब्धं तावत् प्रदेश इति कथ्यते। स तु प्रदेशः सर्वाणुस्थानदानाहः ।
काश है और उससे परे अर्थात् लोकाकाश के चारों ओर अमात अलोकाकाश है। यह लोक और अलोक का विभाग धर्मास्तिकाय तथा अधर्मास्तिकाय के अस्तित्व से जानना चाहिए। अगर ये दोनों द्रव्य न हों तो गति स्थिति के न होने से लोक अलोक का विभाग नहीं होगा। इसलिए इन दोनों द्रव्यों के सद्भाव से ही लोक-अलोक का विभाग स्थिर होता है।
ये चार अजीव द्रव्य और पहले कहा हुआ जीव द्रव्य मिलकर पाच अस्तिकाय कहे जाते हैं। शरीर की तरह वह प्रदेशी होने से ये काय कहे जाते हैं। धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य और एक जीव द्रव्य के असख्यात असख्यात प्रदेश है, आकाश के अनन्त प्रदेश हैं और पुद्गलो के संख्यात, असंख्यात और अनंत प्रदेश होते है। प्रदेश का क्या लक्षण है ऐसा पूछने पर उत्तर हैजितने आकाश को पुद्गल का अविभागी अंश परमाणु घेरता है, उस क्षेत्र को प्रदेश कहते हैं। और वह प्रदेश सम्पूर्ण द्रव्यों के अगमो को स्थान देने में समर्थ होता है।