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। २१ ) माक्तहेमकमलवत् निर्लेपः स्वात्मानदमनुभवति । ___ अंतरात्मा त्रिविधः असंयमी, संयमासंयमी, संयमी च । तत्र चतुर्थगुणस्थानवर्तीसमुपलब्धस्वरूपाचरणसामोऽपि चारित्रमोहकर्मोदयात् यावत् संयम धारयितु समर्थो न भवति तावदसंयमी अंतरात्मा प्रोच्यते । धृतैकदेशसंयम. स्वात्मानुभूतिकुशलः पंचमगुणस्थानवर्ती श्रावकस्तु सयमासंयम्यन्तरात्मपदवाच्यः । इमौ द्वौ धर्म्यध्यानेन स्वसंस्कार कुरुतः । षष्ठगुणस्थानादारभ्य द्वादशगुणस्थानपर्यन्त सप्तगुणस्थानेषु संयमिनोऽन्तरास्मानो भवंति । एते हि विजितसकलचारित्रमोहकर्माणः सप्तमगुणस्थानांतं धर्म्यध्यानेन ततः परं शुक्लध्यानेनात्मशुद्धितत्परा:
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अन्तरात्मा तो सम्यग्दृष्टि होता है वह कीचड से पैदा हुए स्वरिणम कमल की तरह कर्मों से लिप्त नही होता और अपने आत्मा से पैदा हुए आनन्द का अनुभव करता है।
अन्तरात्मा के तीन प्रकार है-असयमी, सयमासयमी और सयमी। उनमें जब तक चतुर्थ गुणस्थानवाला जीव स्वरूपाचरण चारित्र की शक्ति को प्राप्त करके भी चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से संयम धारण करने में समर्थ नहीं होता तबतक वह असयमी अन्तरात्मा कहलाता है । जिसने एकदेश संयम धारण किया है, जो अपनी आत्मा के अनुभव मे प्रवीण है ऐसा पंचम गुणस्थानवाला श्रावक तो सयमासंयमी भन्तरात्मा पद के द्वारा कहा जाता है। ये दोनों धर्म ध्यान के द्वारा अपनी प्रात्मा को निर्मल करते है। छठे गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक सात गुणस्थान वाले संयमी अन्तरात्मा कहलाते हैं। चारित्र मोहनीय कर्म को सम्पूर्ण रूप से जीतते हुए ये संयमी अन्तरात्मा सातवे गुणस्थान तक धर्म्य ध्यान से और उससे आगे शुक्ल ध्यान से आत्म-शुद्धि मे