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( १६ ) थेऽपि न कृतार्था भवति किं पुनरलौकिकार्थ । पारमोत्थान चाविद्याविनाशात् अविद्याविनाशश्च स्वकीयज्ञानमयज्योतिषा। तदेवाविद्याभिदुरं । तस्यैव पृच्छा कर्तव्या मुमुक्षुभिस्तस्यैवान्वेपरणं दर्शन च । तेन वाऽयमात्माऽविद्यामयं पररूपं विनाश्य विद्यामयं स्वकीयरूप प्राप्नुयात् । तथा चाहुमहर्षयः
अविद्याभिदुरं ज्योतिः परं ज्ञानमयं महत, सत् प्रष्टव्यं तवेष्टच्यं तदृष्टव्यं मुमुक्षभिः । ५ सद् यात तत्परान पृच्छेत् तविच्छेत् तत्परो भवेत्,
येनाविद्यामयं रूपं त्यक्त्वा विद्यामयं अजेत् । कर सकता। निमित्तों के पीछे पड़ने वाले लोग तो सासारिक काम में भी सफल नही हो पाते, फिर आध्यात्मिक कार्य में तो सफल ही क्या होगे ? और आत्मा का उत्थान अज्ञान के नाश से होता है और प्रज्ञान का नाश पात्मिक ज्ञान के प्रकाश से होता है । वह प्रकाश ही अविद्या का नाशक है। उस ज्योति यो प्रकाश के बारे में ही प्रात्महित चाहने वाले को प्रश्न करना चाहिए, उसी की खोज और उसी का दर्शन करना चाहिए । उसी से यह आत्मा अविद्यामय पर रूप का नाश कर विद्यामय अपने निजरूप को प्राप्त होगी। महर्षियों ने यही कहा है
अविद्या को नष्ट करने वाली परमोत्कृष्ट एवं महान् जो ज्ञान रूप ज्योति है, मोक्ष चाहने वाले लोगों का कर्तव्य है कि वे उसी ज्योति के विषय में प्रश्न करे, उसी की खोज करें और उसी का साक्षात्कार करे।
उस ज्ञान ज्योति के बारे मे ही बोले, उसी के बारे मे . दूसरो को पूछे, उसीको प्राप्त करने की इच्छा करे और उस रूप ही हो जॉय जिससे यह आत्मा अविद्यामय रूप को छोड़कर अपने ज्ञान स्वभाव को प्राप्त करले।"