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तथा च न तदानीमेव पृथिव्यादिचतुष्टयसंयोगादात्मन उत्पत्तिर्यु क्तिपथप्रस्थायिनी । कर्मबधापेक्षया व्यवहारनयमाधित्योपचारतस्तस्य मूर्तिमत्वस्वीकारे तु न काचन क्षतिः । तथा चोक्त' -
वण्ग रस पंच गंधा दो फासा श्रटु रिगच्वया जीवे । गो संति श्रसुति तदो ववहारा सुत्ति बंधादो ॥
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[वर्णा रसाः पंच, गंधी द्रो, स्पर्शा प्रष्टो, निश्चयात् जीवे नो सन्ति श्रमूर्तिस्ततः व्यवहारात् मूर्ती बंधातु ॥ "")]
कत्तत्व-व्यवहारनयादयमात्मा ज्ञानावरणादीनां पुद्गल कर्मरणां घटपटादीनां च, अशुद्धनिश्चयनयाद् रागद्वेषादीनाम
अनादि कालीन सिद्ध होता है। यह ही कहा है
Polyam
नवजात बालक के स्तन पान की तीव्र इच्छा से; व्यन्तरादिक के देखने से पूर्वभव के स्मरण से तथा पृथ्वी आदि भूत चतुष्टय के गुरण धर्म स्वभाव का आत्मा मे नही पाए जाने से आत्मा स्वभाव से ज्ञाता दृष्टा और नित्य सिद्ध होता है । इस तरह पृथिव्यादिक चतुष्टय के संयोग से आत्मा की उत्पत्ति का कथन युक्तियुक्त नही ठहरता है। कर्म बन्ध की अपेक्षा से व्यवहारनय का आश्रय लेकर उपचार से प्रात्मा को मूर्तिमान मान लेने मे तो किसी प्रकार की कोई हानि नही है । वही कहा है
पाच वर्ण, पांच रस, दो गध, आठ स्पर्श निश्चय नय की अपेक्षा जीव में नहीं है - ग्रत. वह प्रमूत्तिक है; किन्तु पोद्गलिक कर्मों से क्या होने के कारण व्यवहार से वह मूत्तिक है
स्व - ( कर्तापना ) व्यवहार नय की प्रपेक्षा से यह आत्मा ज्ञानावरणादिक प्राठ पुद्गल कर्मों का और घट वस्त्र