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साल्यं प्रति, स्वदेहमितित्वं नैयायिक-मीमांसक-सांख्य त्रय प्रति, कर्मभोक्त त्वसिद्धिः बौद्ध , प्रति, संसारस्थत्वं सदाशिव प्रति, सिद्धत्वं भट्ट-चार्वाकद्वयं प्रति, उर्द ध्वगति-स्वभावकथन माण्डलिक-ग्रन्यकारं प्रति इति मतार्थों ज्ञातव्यः।"
अधुनतेषां जीवस्वभावानां प्रत्येक संक्षेपतो वर्णनं क्रियते
उपयोगमयत्व-उपयोगमयत्वं हि दर्शनज्ञानस्वभावात्मकत्वं ! दर्शनज्ञानस्वभावातिरिक्तजीवलक्षणस्थाभावात
स्वरूप नही मानते । भट्ट व चार्वाक जीव को मूत्तिक मानते हैं, उनके निराकरणार्थ प्रमूर्त्त विशेषण दिया गया है। सांख्य जीव को कर्मों का कर्त्ता नहीं मानता; अतः कर्ता पद से साख्य मत का परिहार किया गया है। जीव को सर्व व्यापक मानने वाले नैयायिक, मीमांसक और साख्यो के प्रति स्वदेह परिणाम, विशेषगा दिया गया है । कर्म का कर्ता और कोई है तथा मोक्ता अन्य है-ऐसा मानने वाले बौद्ध के प्रति कर्म फल का भोक्ता यह विशेषण दिया गया है । सदाशिव मतवाले जीव को सदामुक्त मानते है-अतः ससारस्थ विशेपण से उस मान्यता का निराकरण किया गया है। भट्ट तथा चार्वाक जीव का मुक्त होना ही नही मानते है-उनके निराकरण के लिए सिद्ध पद दिया है। मांडलिक मतावलम्बी जीव का ऊर्ध्व गमन स्वभाव नहीं मानते, उनके परिहार के लिए ऊर्ध्वगति विशेषण दिया है।
। अब इन जीव के स्वभावो का प्रत्येक का सक्षेप से वर्णन करते है। उपयोगमयो है
उपयोगमय का अर्थ है-दर्शन-ज्ञान-स्वभावी होना । दा जान स्वभाव के अलावा जीव के लक्षण का अभाव है। ( उपयोग के दो भेद है-दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग-1
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