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1 १६३ ) ' भवतामियं युक्तिन समीचीना यद्रव्यनि:पोऽभिन्नयोरेव भवे_ 'तीतिः। यथा देव-देवप्रतिमयोभिन्नत्वं तथा राजराजशरीरयोरपि । भिन्नत्वमिति चेन्न
ज्ञानज्ञेयादिसम्बन्धभिन्नयोरपिवस्तुनोरभिन्नत्वोपचारेणाभि नत्वख्यातयोव्यनिक्षेपो, भवति। न चेहशीस्थापना, स्थापना- - याममिन्नत्व निक्षेपतः क्रियते । द्रव्यनिक्षेपे त्वभिन्नत्वमपचारतः पूर्वमेवास्ति । पूर्वत्राभिलता कार्यमुत्तरत्र तु सा कारणमित्यन- । योर्भेदः।
वर्तमानपर्यायसंयुक्त द्रव्यं भावनिक्षेप. । स पूर्ववदाद्विविधः, प्रागमभावनिक्षेपो नोग्रागमभावनिक्षेपश्चेति । तत्र तत्नाभूत
को असत्य ठहराया जाय कि भिन्न भिन्न पदार्थों का भी द्रव्य निक्षेप होता है-जैसे कि देव और देव की प्रतिमा में भिन्नत्व है वैसे ही राजा और राजा' के शरीर में भी भिन्नता है तो ऐसा कहना भी मुक्ति-संगत नहीं है।
ज्ञान ज्ञेयादि सम्बन्धो से भिन्न भिन्न वस्तुओ में भी अभि-' नत्व का उपचार होने से जो अभिन्न प्रसिद्ध हैं उन्ही में द्रव्य निक्षेप होता है। स्थापना- ऐसी नहीं होती। स्थापना में तो अभिन्नता निक्षेप के द्वारा की जाती है। द्रव्य-निक्षेप में तो अभिन्नता उपचार से पहले मौजूद रहती है । द्रव्य-निक्षेप में अभिन्नता कार्य रूप है जब कि स्थापना में वह कारण रूप हैयह इन दोनों में, भेद है।
वर्तमान पर्याय के द्वारा उपलक्षित पदार्थ को भाव-निक्षेप कहते है । अर्थात वर्तमान मे जो पदार्थ जिस पर्याय सहित है। उसको उसी पर्यायवाला कहना भाव-निक्षेप है। उसके भी भागम-भाव-निक्षेप और नो-मागम-भाव-निक्षेप इस प्रकार