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प्रत्यच्च
एता सा भगवई अहिसा जासा भीयारणं पिव सरणं । पख्खीणं पिव गगणं, तिसीयागं पिव सलिलं, . खुदियारण पिव असणं समुज्भेव पोयबहरणं, चउप्पयाणं व श्रासमपयं, दुदट्ठियाणं च ओसदिबल अडविमज्भेव सत्यगमरणं तथा विसिठ्ठतरिगा अहिंसा ।
ग्रन्यच्च
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हिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमम् ।
वस्तुतोऽहिंसा भगवती । श्रनयैव मनुष्यस्य सर्वा प्रापदो विनश्यन्तीतीयम् समुपास्या नित्यमात्महितेप्सुभिरिति ।
और भी कहा है:
जैसे डरे हुये जीवों के लिये उत्तम शरण स्थान, पक्षियों के लिये प्रिय आकाश, प्यासों के लिये प्रिय सलिल, क्षुधात्तों को मिष्ट भोजन, समुद्र में डूबतों को प्रिय जहाज, पशुओ को प्रिय ब्रज, रोगग्रस्तो को प्रिय औषध तथा भयंकर वन में सार्थवाह अर्थात् साथियों का समूह होता है । वैसे ही संसार में जीवों के लिये भगवती अहिंसा होती है । हिंसा की ऐसी ही विशे
पता है |
और भी कहा है
संसार मे अहिसा प्राणी मात्र के लिये प्रसिद्ध सर्वोत्कृष्ट ब्रह्म है ।
वास्तव में अहिंसा भगवती है। इस के द्वारा मनुष्य को मत्र विपत्तियाँ नष्ट हो जाती हैं, प्रत प्रात्म- हित चाहने वाले लोगों को इसकी निरन्तर उपासना करनी चाहिए।