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' तपःश्रुतयमज्ञानध्यानदानादिकर्मणाम् ।
सत्यशीलवतादीनामहिसां जननी मता ।।५।। अहिंसकाऽपि यत्सौख्य कल्याणमथवा शिवम् ।
दत्त तदेहिनां नायं तपः श्रुतयमोत्करः ।।६।। जन्मोग्रभयभीतानामहिंसवौषधिः परा।
तथाऽमरपुरी गन्तुं पाथेय पथि पुष्कलम् ।।७।। किन्त्वहिंसव भूतानां मातेव हितकारिणी।
तथा रमयितुकान्ता विनेतुंच सरस्वती ।।८।। कि न तप्त तपस्तेन कि न दत्तं महात्मना ।
• वितीर्णमभय येन प्रीतिमालम्ब्य देहिना ।।६।
तप, श्रुत, यम, ज्ञान, ध्यान, दान आदि कर्मो की तथा सत्य, शील, प्रत, वगैरह की जननी अहिसा को ही माना गया है ॥५॥ ___ अकेली अहिंसा ही प्राणियो को जो सुख, कल्याण अथवा मोक्ष प्रदान करती है वह तप, श्रुत, यम का समुदाय भी नहीं ॥६॥
जन्म मरण की भयंकर बीमारी से ग्रस्त लोगों के लिए अहिसा ही सर्वोत्कृष्ट दवा है और स्वर्ग पुरी के मार्ग में जानेको पौष्टिक कलेवा है ॥७॥
अहिसा ही माता के समान प्राणियो का कल्याण करने वाली है एवं रमण करने के लिए सुन्दर स्त्री के समान तथा प्रज्ञानान्धकार दूर करने के लिये सरस्वती के समान है ।
जिस महात्मा ने देहधारियो से प्रेम करके उन्हे निर्भय बना दिया उसने कौनसा तप नहीं तपा और कोनसा दान नहीं दिया ।।।