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(१२१) तत्त्व; प्रत स्यानास्तीतिभड: एकएवेति सौगतमतमपि न युक्तियुक्त, द्रव्यस्यापि प्रतीतिसिद्धत्वात् । एवमवक्तव्यमेव वस्तु तत्त्वमित्यवक्तव्यकान्तोऽपि सदामौनवतिकोहमितिवत् स्वव. चनबाधित । एवमन्येपामप्येकान्ताना प्रतीतिवाधितत्वादने. कान्तवाद एव श्रेयान् ।
ननु च-प्रनेकान्तेऽपि विधिप्रतिषेधरूपा सप्तभगी प्रवर्तते न वा? प्रथमपक्षेऽनेकान्तस्य निषेधकलपनायामेकान्तः स्यादिति तत्पक्षोक्तदोपानुषङ्ग अनवस्था छ । तादृर्शकान्तस्याप्यपराने
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पर्याय ही तत्त्व है द्रव्य नहीं इसलिये "स्यान्नास्ति" नित्य पदार्थ कोई नही है-यह एक भग ही काफी है । बौद्धों का यह मत भी तकं विरुद्ध है; क्योकि घट कपाल मादि पर्यायो मे मृत्तिका रूप द्रव्य नित्य अनुभव सिद्ध है। इसी प्रकार जिनकी यह मान्यता है कि वस्तु सर्वथा प्रवक्तव्य रूप ही है यह अवक्तव्य एकान्तवाद भी उनके खुद के वचन से ही विरुद्ध पड़ जाता है; क्योकि वे प्रवक्तव्य शब्द से वस्तु को कहते हैं तो सर्वथा प्रवक्तन्यपना कहां रहा? जैसे कोई कहे कि मैं मौनव्रती हूँ पर शब्द बोल भी रहा है तो उसका कहना स्ववचन-बाधित है। इस प्रकार अन्य भी सर्वथा एकान्तवादियो की मान्यता अनुभव विरुद्ध होने से अनेकान्तवाद ही युक्तियुक्त है।
शका-अनेकान्त मे भी विधि-प्रतिपेध-रूप सप्तभगी की प्रवृत्ति है या नहीं। यदि है तव तो अनेकान्त के निषेध की कल्पना से एकान्त ही प्राप्त होगा; क्योकि अनेकान्त का निषेध एकान्त रूप ही होगा और उस हालत में जो आपने एकान्त पक्ष मे दोष लगाए है ये पापा भी लगेगे और अनवस्था दोष का प्रसंग भी बनेगा, क्योंकि वैसे एकान्त के अम्म प्रनेकान्त की