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________________ ( १०३ ) हिता पदार्थं याथार्थ्येन ज्ञातुमशक्नुवन्तस्तस्यान्यथाकल्पनं विदघति । न चास्य स्याद्वादस्याने कान्तवादापरनामधेयस्य केवल शास्त्रेष्वेवोपयोगो । वस्तुतस्तु इम विना लोकस्य व्यवहारोऽपि न सर्वथा सम्पादनीयो भवेत् तदपेक्षत्वात् तस्य । एकस्मिन व पुरुषे युगपदेव पितृत्वपुत्रत्व मातुलत्वभागिनेयत्वपितामहत्वपौत्रत्वमाता महत्व ने प्तृत्व ज्येष्ठत्व कनिष्ठत्वादयोऽने के धर्मा विभिन्न पुरुषापेक्षया वर्तन्ते, तादृशो व्यवहारश्चापि भवति । यद्ययमाग्रह स्यात् यः पिता स पितैव तदा तु तस्य सत्ताऽपि सदिग्धा भवेत् । एकस्मिन्नेव काले आमलकमा म्रापेक्षया सूक्ष्मं, चदरापेक्षया च स्थूलं प्रतीयते । रङ्को मनुष्यत्वापेक्षया राजसदृश शासकशा सितापेक्षया च तयोर्महान् भेद' इति सर्वत्रानेउसका स्वरूप अन्यथा समझा था उसी तरह जिनके स्याद्वाद रूपी चक्षु नहीं, वे पदार्थ को ठीक ठीक नही जानते हु उसके स्वरूप को विपरीत समझते हैं । अनेकान्तवाद जिसका दूसरा नाम है ऐसे इस स्याद्वाद का मात्र शास्त्रों में ही उपयोग होता हो ऐसा नही है । वास्तव में इसके विना तो लोक व्यवहार भी ठीक सम्पन्न नही हो सकता, क्योकि लोक व्यवहार में स्याद्वाद की पैड पेंड पर जरूरत है । • एक ही पुरुष में एक ही समय भिन्न भिन्न पुरुषों की अपेक्षा अनेक धर्म रहते है । जैसे वह पिता भी हैं तो पुत्र भी, मामा भी है तो वहनजा भी, बाबा भी है तो पोता भी, नाना भी है तो दोहता भी, वडा भी है तो छोटा भी और इसी तरह व्यवहार भी चलता है । अगर यह हठ हो कि जो पिता है वह पिता ही होगा तब तो उसका अस्तित्व ही संशय पूर्ण हो जायगा । एक ही समय मे श्रावला श्रम की अपेक्षा सूक्ष्म है तो बेर की अपेक्षा से स्थूल है। दीन भी मनुष्यपने की अपेक्षा राजा के समान है लेकिन राजा और प्रजा की अपेक्षा से उन दोनो में महान्
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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