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(६४) तदौदनपर्यायः सन्निहितः, तदर्थ व्याप्रियते सः । नैगमोऽयमन्योन्यगुणप्रधानभूतभेदाभेदप्ररूपकः, सर्वथाऽभेदवादस्तु तदाभासः । स्वजात्यविरोधेनैकध्यमुपनीयाविशेषेण समस्तग्रहणात् संग्रह यथा सत्, द्रव्यं, घट इत्यादि । सदित्युक्त सर्वेषां सत्ताधारभूतानामविशेषेण संग्रहो भवति । द्रव्यमित्युक्त जीवाजीवतद्भदप्रभेदाना संग्रहः । घट इत्युक्ते सर्वेषा घटबुद्धयभिधानविषयभूतानां संग्रह. । संग्रहो हि प्रतिपक्षव्यपेक्षो यावन्मात्रतज्जातीयपदार्थ ग्राहकः । सर्वथा सन्मात्रग्राही तु तदाभासः । संग्रहगृहीत
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वह चांवल रूप पर्याय अभी मौजूद कहां है वह उसके लिए व्यापार ही तो कर रहा है। यह नैगम नय धर्म और धर्मी, गुण और गुणी मे गौण मुख्य भाव से भेद और अभेद दोनों को ग्रहण करने वाला है। धर्म और धर्मी मे सर्वथा भेद मानना नैगमाभास है । जो एक वस्तु की समस्त जाति को व उसकी समस्त पर्यायो को संग्रह रूप करके एक स्वरूप कहे, उसको सग्रह नय कहते है, जैसे सद, द्रव्य, घट वगैरह । सत ऐसा कहने से सम्पूर्ण सत् पदार्थों का संग्रह हो जाता है। द्रव्य ऐसा कहने से जीव अजीवादि तथा उनके भेद प्रभेदादि सबका ग्रहण होता है। घट कहने पर घट रूप से कहे जाने वाले सब घटों का ग्रहण हो जाता है। निश्चय से यह संग्रह नय विपक्षी की अपेक्षा न करता हुआ जितने भी एक जाति के पदार्थ है उन सब को ग्रहण करता है। सर्वथा सन्मात्र को ग्रहण करने वाला सग्रह नही सग्रहाभास है। अद्वत ब्रह्मवाद शव्दाद्वैत आदि सभी संग्रहाभास हैं क्योकि इसमें भेद का सर्वथा निराकरण कर दिया है। संग्रह नय में अभेद मुख्य होने पर भी भेद का निराकरण नहीं- गौरण अवश्य हो जाता है। सग्रह नय के द्वारा सगृहीत अर्थ का विधि पूर्वक भेद प्रभेद करने वाला व्यवहार