________________
( १ ) हेत्वपरणात् साध्यविशेषस्य याथात्म्यप्रापरणप्रवणप्रयोगो नयः । अथवा नानास्वभावेभ्यो व्यावृत्य एकस्मिन् स्वभावे वस्तु नयति प्राप्नोतीति नय.। अथवा श्रुतप्रमाणविकल्पो नयः । ज्ञातुरभिप्रायो वा नयः । इमानि च सर्वाणि लक्षणानि एकमेवार्थ प्रतिपादयन्ति । प्रमारणं हि द्रव्यपर्यायात्मकं सामान्यविशेषात्मकं वा वस्तु विजानाति । नयस्य तु न तादृशं सामर्थ्य । स हि वस्तु विजानन् केवलं तस्य द्रव्यत्वांशं विजानीयात् पर्यायत्वांशं वा। तत्तु न सकलं वस्तु, तादृशांशस्य विकलत्वात् । सकल तु वस्तु द्रव्यपर्यायात्मकं । अत एव प्रमाणस्य सकलादेशत्वं नयस्य च विकलादेशत्व सुप्रसिद्ध
ननु स्वार्थनिश्चायकत्वान्नयः प्रमाणमिति चेन्न, तस्य स्वार्थे
।
प्रयोग करते हुए यथार्थ साध्य विशेष की प्राप्ति करने का जो उत्तम तरीका है वही नय है। अथवा भिन्न भिन्न स्वभावों से हटकर एक स्वभाव में वस्तु को जो प्राप्त कराता है वह नय है। अथवा श्रुत ज्ञान के विकल्प को नय कहते हैं । अथवा ज्ञाता के अभिप्राय विशेष को नय कहते है । ये सारे के सारे लक्षण एक ही अर्थ का प्रतिपादन करते है । प्रमाण निश्चय से द्रव्य पर्यायात्मक अथवा सामान्य विशेषात्मक वस्तु को जानता है। लेकिन नय की वैसी सामर्थ्य नहीं है । वह तो वस्तु का ज्ञान करता हुमा केवल उसके द्रव्यांश को जान सकेगा या पर्यायांश को ही। पर वह तो वस्तु का पूर्ण स्वरूप नहीं है। केवल द्रव्यांग या पर्यायाश तो वस्तु का अपूर्ण रूप है । वस्तु का पूर्ण रूप तो द्रष्य पर्यायात्मक होता है। इसीलिए प्रमाण को सकलादेशी और नय को विकलादेशी कहा जाना सुप्रसिद्ध है।
शंका-अपने अर्थ का निश्चय करानेवाला होने से नय प्रमाण ही है।