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________________ । ८३ ) त्वात् । कश्चित्पूर्वचरो यथा उदेष्यति शकट कृत्तिकोदयात् । कश्चिदुत्तरचरो यथा उद्गाद् भरणी प्राक् कृत्तिकोदयात् । कश्चित्सहचरो यथा आम्र रूपवत् रसवत्त्वात् । एते हि हेतवो भावरूपा भावरूपानेवाग्न्यादीन् साधयन्तीति विधिसाधकविधिरूपाः प्रोच्यते । अतएवाविरुद्धोपलब्धय इत्यप्यूच्यन्ते । द्वितीयस्तु निषेधसाधक विरुद्धोपलब्धिरिति यावत्, यथा नास्य मिथ्यात्वं आस्तिक्यान्यथानुपपत्तेः । यथा वा नास्ति वस्तुनि सर्वथैकान्तः अनेकान्तत्वान्यथानुपपत्तेः । प्रतिषेधरूपोऽपिहेतुद्विविधो-विधिसाधकः प्रतिषेधसाधकश्चेति । आद्यो यथा अस्त्यत्र प्राणिनि सम्यक्त्वं विपरीताभिनिवेशाभावात् । द्वितीयो यथा नास्त्यत्र धूमो वह्नयनुपलब्धेः । वृक्ष है नीम होने से 1 कोई पूर्वचर होता है-जैसे शकट तारे का उदय होगा क्योकि कृत्तिका तारे का उदय होगया है। कोई उत्तरचर होता है-जैसे भरणी का उदय पहले हो चुका क्योंकि कृत्तिका का उदय हो गया है । कोई सहचर होता है-जैसे ग्राम रूप वाला है रसवाला होने से। निश्चय से ये सारे हेतु सद्भाव रूप हैं और सत्स्वरूप अग्नि वगैरह को सिद्ध करते है। इसलिए इन्हे विधि-साधक विधिरूप हेतु कहते हैं। अविरुद्धोपलब्धि नाम से भी ये पुकारे जाते है। दूसरा निपेघ सापक है जो विरुद्धोपलब्धि नाम से भी कहा जाता है-जैसे इस जीव के मिथ्यात्व नहीं है, होता तो आस्तिकता नही हो सकती थी । अथवा वस्तु में सर्वथा एकान्त नही है, होता तो अनेकान्तत्व की उत्पत्ति नहीं हो सकती थी। प्रतिघेध रूप हेतु भी दो प्रकार का है-विधि साधक और प्रतिषेध साधक । पहला-जैसे इस जीव मे सम्यक्त्व है क्योंकि विपरीत आग्रह नही है । दूसरा- जैसे यहां धूवा नही है क्योकि अग्नि
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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