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________________ ( ७६ - रिति तथैवचूमवत्त्वोपपत्तेरिति वा। अनयोर्हेतुप्रयोगयोरुक्तिवैचित्र्यमानं, प्रथमे निषेधमुखेन कथन द्वितीये तु विधिमुखेनेति, द्वयोरेकनेव प्रयोक्तव्यं । धूमादित्यपि प्रयोक्तुं शक्यते वेति । ___ नैयायिकास्तु परार्थानमानस्य पंचावयवान् स्वीकुर्वन्ति, प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमनाख्यान् । तत्त नावश्यक, पूर्वोताभ्या द्वाभ्यामेवावयवाभ्या प्रतिज्ञाहेतुरूपाभ्या पर्याप्तत्वात् । वीतरागकथायां तु शिष्याभिप्रायानरोधेन यद्यपि अवयवाधिक्यमपि स्यात् किन्तु विजिगीषुकथाया प्रतिज्ञाहेतुरूपावयवद्वयेनैव पर्याप्त: अन्यरवयवैः न किमपि प्रयोजनम् । विजिगीषुकथा हि वादिप्रतिवादिनो: स्वमतस्थापनार्थ प्रवर्तमानो वाग्व्यापारः । गुरुशिष्याणां जिज्ञासूनां वा रागद्वेषरहितानां तत्त्वनिर्णयपर्यन्तं प्रयोगो में कोई अन्तर नही है- कहने की विचित्रता मात्र है। पहला कयन निषेध रूप से है और दूसरा विधि रूप से । दोनों मे से एक का ही प्रयोग करना चाहिए। धूवा होने से यह भी प्रयोग किया जा सकता है। नैयायिक तो परार्थानुमान के पाच अग स्वीकार करते हैप्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन । पर ये पांच अंग स्वीकार करना जरूरी नहीं है, पहले कहे गये प्रतिज्ञा हेतु रूप दो अवयव मानना ही काफी है। वीतराग कथा में तो शिष्य को समझाने के लिए यद्यपि अधिक अवयव भी माने जा सकते हैं लेकिन विजिगीषु कथा में तो प्रतिज्ञा और हेतु रूप दो अवयव ही पर्याप्त हैं, अन्य अवयव मानने में कोई फायदा नहीं है। वादी और प्रतिवादी लोगों का अपने अपने पक्ष की पुष्टि के लिए जो वचन व्यवहार होता है वह विजिगीषु कथा कहलाती है । तथा रागद्वप रहित तत्वज्ञान की इच्छा रखने वाले गुरुशिष्यो के तत्व निर्णय होने तक जो वचन व्यवहार चलता है
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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