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( ७० स्मृतिप्रत्यभिज्ञानतरिणां पृथप्रामाण्यसमर्थनम् स्मृतिप्रामाण्यसमर्थन-तदित्याकारा प्रागनुभूतवस्तुविषया स्मृति यथा स देवदत्त । केचित् स्मृतेः प्रामाण्यं न स्वीकुर्वन्ति तन्न समीचीनं । स्मृतेरनुभूतार्थविषयत्वेन गृहीतग्राहित्वादप्रामाण्य मिति न वक्तव्य, परिच्छित्तिविशेपसद्भावात् न खलु यथा प्रत्यक्ष विशदाकारतया प्रतिभासस्तथैव स्मृती, तत्र तस्या वैशद्याऽप्रतीते। न च तस्या विसम्वादादप्रामाण्यं, दत्तग्रहादिविलोपापत्तेः । तद्ग्रहीतेथे स्वयं स्थापितनिक्षेपादौ प्राप्तिप्रमागांतरप्रवृत्तिलक्षणाविसम्वादप्रतीते । यत्र तु विसम्वादस्तन स्मृतेराभासत्वं प्रत्यक्षाभासवत् । यदि स्मृते प्रामाण्य न स्वी
स्मृति प्रत्यभिज्ञान तर्क वगैरह की भिन्न-भिन्न प्रमाणता की सिद्धि 1/ स्मृति की प्रमाणता की सिद्धि.-पहले अनुभव किये गए अवार्थ को 'वह इस आकार में ग्रहण करने वाला ज्ञान स्मरण या स्मृति है, जैसे वह देवदत्त । कई स्मृति की प्रमाणता नही मानते-यह ठीक नहीं। वे कहते है स्मृति अप्रमाण है, क्योकि वह पूर्वानुभूत पदार्थ को विषय करने वाली होने से गृहीतग्राही है-ऐसा कहना ठीक नही, क्योंकि वह भी ज्ञान विशेप है। यह ठीक है कि जैसा प्रत्यक्ष में निर्मल प्रतिभास होता है वैसा स्मृति में नहीं होता- स्मृति मे निर्मलता की प्रतीति नहीं होती। वह विसम्वादी है अतः अप्रमाण है- ऐसा कहना भी ठीक नही, क्योकि इससे तो देन लेन प्रादि व्यवहार निर्मूल हो जायगे । स्मृति पूर्वक रखें गए या गाड़े गए पदार्थों की प्राप्ति होती है- उसमें किसी प्रमाणान्तर की जरूरत नहीं होती और न कोई गलत फहमी होती, अतः कोई विसम्बाद नही.और जहां विसम्बाद होता है वहां स्मृत्याभास कहा जाता है प्रत्यक्षाभास की तरह। अगर स्मृति को प्रमाण न माना