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( ५८ ) स्वान्न संशय । तदिन्ने वस्तुनि तत्प्रत्ययो विपर्ययः,पथा शुक्तिकायां रजतमितिज्ञानं, अनात्मन्यात्मेतिज्ञानं वा । वस्त्वनुल्लेखी किमित्यालोचनमात्रप्रत्ययोऽनध्यवसायः यथा पथि गच्छतस्तृणस्पर्शादिज्ञानम् Imation
८ स्वतस्त्व-परतस्त्व-वावः अर्थतादृशलक्षणप्रमाणस्य यत् प्रामाण्यं तस्य कथमुत्पत्तिः स्वत. परतो वा ? प्रामाण्योत्पत्तिः परत एव विशिष्टकार्यस्य विशिष्टकारणप्रभवत्वात् । ज्ञान हि सामान्यं सम्यङ मिथ्याज्ञानयोरुभयोरपि ज्ञानत्वात् । सम्यग्ज्ञानं मिथ्याज्ञानं तु तस्य विशेषः। अत: ज्ञानसामान्यस्य यान्युत्पत्तिकारणानि न तानि एव केवलं
ज्ञान होना विपर्यय कहा जाता है-जैसे सीप मे चादी का ज्ञान होना, पुद्गल में प्रात्मा का ज्ञान होना। वस्तु का नाम न बताते हुए कुछ है केवल इतना जानने को अनध्यवसाय जानना चाहिए जैसे मार्ग में गमन करते हुये तृण आदि के स्पर्श का ज्ञान होना।
स्वतस्त्व परतस्त्व वाद अव सम्यग्ज्ञान है लक्षण जिसका ऐसे प्रमाण की जो । प्रमारणता ( प्रमाण जिस पदार्थ को जिस रूप में जानता है उसका उसी रूप में प्राप्त होना यानी प्रतिभात विषय का अव्यभिचारी होना ) है। उसकी उत्पत्ति अपने से होती है या पर से ? प्रामाण्य की उत्पत्ति पर से ही होती है क्योकि, विशेष कार्य विशेष कारणो से ही पैदा होता है। वास्तव में ज्ञान तो सामान्य है क्योकि सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञान दोनों ही ज्ञान रूप हैं । सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञान तो ज्ञान की विशेषता है । इसलिए ज्ञान सामान्य के जो उत्पत्ति के कारण है वे ही सिर्फ विशेष ज्ञान के नही हो सकते । सम्यग्ज्ञान प्रमाण है-मिथ्या