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________________ ८६] जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा . -ये छह मिथ्यात्व की प्ररूपणा के स्थान हैं। (१) आत्मा है। . (२) आत्मा निस है। (३) आत्मा कर्म की कर्ता है। (४) आत्मा कर्म की भोक्ता है। (५) निर्वाण है। (६) निर्वाण के उपाय है। ये छह सम्यकत्ल की प्ररूपणा के स्थान हैं 311 "कई व्यक्ति यह नही जानते-मैं कौन हूँ ? कहाँ से आया हूँ ! कहाँ जाऊँगा ? जो अपने आप या पर-व्याकरण से यह जानता है, वही आत्मवादी, लोकवादी, कर्मवादी और क्रियावादी है । इस दृष्टि को लेकर भगवान महावीर ने तत्त्व-चिन्तन की पृष्ठभूमि पर बहुत वल दिया। उन्होंने कहा-"जो जीव को नही जानता, अजीव को नही जानता, जीव-अजीव दोनों को नहीं जानता, वह संयम को कैसे जान सकेगा ?" "जिसे जीव-अजीव, प्रस-स्थावर का ज्ञान नही, उसके प्रत्याख्यान दुष्प्रत्याख्यान है और जिसे इनका ज्ञान है, उसके प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान हैं 3.1" यही कारण है कि भगवान् महावीर की परम्परा में तत्त्व-चिन्तन की अनेक धाराएं अविच्छिन्न प्रवाह के रूप में वही । __ आत्मा, कर्म, गति, आगति, भाव, अपर्यान, पर्यात आदि के बारे में ऐसा मौलिक चिन्तन है, जो जेन दर्शन की स्वतन्त्रता का स्वयम्भू प्रमाण है। जैन दर्शन में प्रतिपादन की पद्धति में अव्याकृत का स्थान है-वस्त मात्र कथंचित् अवक्तव्य है। तत्त्व-चिन्तन में कोई वस्तु अन्याकृत नहीं । उपनिषद् के ऋषि परमब्रह्म को मुख्यतया 'नेति नेति द्वारा बताते हैं 80 वेदान्त में वह अनिर्वचनीय है। 'नेति नेति' से अभाव की शंका न आए, इसलिए ब्रह्म को सत्-चित्-आनन्द कहा जाता है। तात्पर्य में वह अनिर्वचनीय ही है कारण कि वह वाणी का विषय नहीं बनता। बौद्ध दर्शन में लोक शाश्वत है या अशाश्वत सन्ति है या अनन्त ।
SR No.010217
Book TitleJain Darshan me Praman Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages243
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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