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जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा
भगवान महावीर भी शाश्वतबाट और उच्छेदवाद के विरुद्ध थे। इस विषय मे दोनो की भूमिका एक थी फिर भी भगवान् महावीर ने कहा"तुःख आत्मकृत है। कारण कि वे इन दोनो वाटी से दूर भागने वाले नहीं थे। उनकी अनेकान्तदृष्टि मे एकान्तशाश्वत या उच्छेट जैमी कोई वस्तु थी ही नहीं। दुःख के करण और भोग में जैसे आत्मा की एकता है वैसे ही करणकाल में और भोगकाल में उनकी अनेकता है। बात्मा की जो अवस्था करणकाल में होती है, वही भोगकाल में नहीं होती, यह उच्छेद है। करण
और भोग दोनो एक आधार में होते हैं, यह शाश्वत है। शाश्वत और उच्छेद के भिन्न-भिन्न रूप कर जो विकल पद्धति से निरूपण किया जाता है, वही विभज्यवाद है।।
इम विकल्प-पद्धति के ममर्थक अनेक संवाद उपलब्ध होते हैं। एक सवाद देखिए___ सोमिल-"भगवन् ! क्या आप एक है या दो १ अक्षय, अव्यय, अवस्थित हैं या अनेक भूत भव्य-भविक ?"
भगवान्-"सोमिल ] में एक भी हूँ और टी भी।" सोमिल-"यह कैसे भगवन् !"
भगवान्-"द्रव्य की दृष्टि से एक हूँ; सोमिल ! जान और दर्शन की दृष्टि से दो।। ____ "श्रात्म-प्रदेश की दृष्टि से में अक्षय, अव्यय, अवस्थित भी हूँ और भूत-भावी काल में विविध विषयो पर होने वाले उपयोग (चेतना-व्यापार) की दृष्टि से परिवर्तनशील भी हूँ।" ___ यह शकित भाषा नहीं है। तत्त्व-निरूपण में उन्होने निश्चित भाषा का प्रयोग किया और शिष्यो को भी ऐसा ही उपदेश दिया। छमस्थ मनुष्य धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश, शरीर रहित जीव आदि को सर्वभाव से नही जान सकते ३०॥ __ अतीत, वर्तमान, या भविष्य की जिस स्थिति की निश्चित जानकारी न हो तब 'ऐसे ही है' यूं निश्चित भाषा नहीं बोलनी चाहिए और यदि असदिग्ध जानकारी हो तो 'एवमेव' कहना चाहिए 11 केवल भावी कार्य के बारे में