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जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा
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(२) अनुमानतः सत्य ।
(३) ध्रुव सत्य ।
० अकुशल व्यक्ति सम्भव-सत्य से सत्य को ढूंढता है सियायाधीश अनुमानित सत्य से सत्य का पता लगाते हैं दार्शनिक का न्याय इन दोनों से मित्र हैं। वह ध्रुव सत्य - व्याप्ति के द्वारा सत्य की शोध करता है । ध्रुव सत्य नियमो की निश्चित जानकारी तर्क है । उसके द्वारा निश्चित नियमो के अनुसार अनुमान होता है ।
तर्क का प्रयोजकत्व
“स्वभावे तार्किका भग्नाः”—स्वभाव के क्षेत्र में तर्क का कोई प्रयोजन नही होता ।) इसीलिए जैन दर्शन में दो प्रकार के पदार्थ माने हैं हेतु गम्य (तर्क - गम्य) और अहेतुगम्य (तर्क-अगम्य ) ।
पहली बात --- तर्क का अपना क्षेत्र कार्य-कारणवाद या अविनाभाव या व्याप्ति है । व्याप्ति का निश्चय तर्क के बिना और किसी से नहीं होता । इसका निश्चय अनुमान से किया जाये तो उसकी ( व्याप्ति के निश्चय के लिए प्रयुक्त अनुमान की ) व्याप्ति के निश्चय के लिए फिर एक दूसरे अनुमान की श्रावश्यकता होगी। कारण यह है कि अनुमान व्याप्ति का स्मरण होने पर ही होता है। साधन और साध्य के सम्बन्ध का निश्चय होने पर ही साध्य का ज्ञान होता है ।
पहले अनुमान की व्याति 'ठीक है या नहीं' इस निश्चय के लिए दूसरा अनुमान आये तो दूसरे अनुमान की वही गति होगी और उसकी व्याप्ति का निर्णय करने के लिए फिर तीसरा अनुमान आयेगा । इस प्रकार अनुमानपरम्परा का अन्त न होगा । यह अनवस्था का रास्ता है, नही मिलता ।
इससे कोई निर्णय
दूसरी बात——व्याप्ति अपने निश्चय के लिए अनुमान का सहारा ले और अनुमान व्याप्ति का यह अन्योन्याश्रय दोष है । अपने-अपने निश्चय में परस्पर एक दूसरे के आश्रित होने का अर्थ है- अनिश्चय । जिसका यह घोड़ा है, उसका सेवक हूँ और जिसका मैं सेवक हूँ उसका यह घोड़ा है - इसका अर्थ
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