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जैन दर्शन में प्रमाण मोमासा अपरिचित वस्तु के ज्ञान में इस क्रम का सहज अनुभव होता है। इसमें कोई सन्देह नहीं, हम एक-एक तथ्य का संकलन करते-करते अन्तिम तथ्य तक पहुंचते हैं। परिचित वस्तु को जानते समय हमे इस क्रम का स्पष्ट मान नहीं होता। इसका कारण है-ज्ञान का आशु उत्पाद'-शीघ्र उत्पत्ति । वहाँ भी यह क्रम नहीं टूटता।) क्षण भर में बिजली-घर से सुदूर तक बिजली पहुंच जाती है। एक साथ नहीं जातीति मे क्रम होता है किन्तु गति का वेग अति तीव्र होता है, इसलिए वह सहज बुद्धिगम्य नहीं होता।
संशय, ईहा और अवाय का क्रम गौतमोक्त सोलह पदार्थगत संशय,१५ तर्क और निर्णय के साथ तुलनीय है । ईहा और तर्क का भेद __ परोक्ष प्रमाणगत तर्क से ईहा भिन्न है । तर्क से व्याप्ति (अन्वय व्यतिरेक का त्रैकालिक नियम ) का निर्णय होता है और ईहा से केवल वर्तमान अर्थ का अन्वय व्यतिरेकपूर्वक विमर्श होता है।
न्याय के अनुसार अविज्ञात वस्तु को जानने की इच्छा होती है। जिज्ञासा के बाद संशय उत्पन्न होता है। संशयावस्था मे जिस पक्ष की ओर कारण की उत्पचि देखने में आती है, उसी की सम्भावना मानी जाती है और वही सम्भावना तर्क है । संशयावस्था मे तक का प्रयोजन होता है। यह लक्षण ईहा के साथ संगति कराने वाला है। प्राप्यकारी और अप्राप्यकारी
साधारणतया पाँच इन्द्रियां समकक्ष मानी जाती हैं किन्तु योग्यता की दृष्टि से चक्षु का स्थान कुछ विशेष है। शेष चार इन्द्रियां अपना विषय ग्रहण करने में पटु हैं। इस दशा मे चतु पटुतर है।
स्पर्शन, रसन, प्राण और श्रोत्र ग्राह्य वस्तु से संपृक्त होने पर उसे जानते हैं, इसलिए वे पटु हैं। चतु ग्राह्य वस्तु को उचित सामीप्य से ही जान लेता है, इसलिए यह पटुतर है। पटु इन्द्रियां प्राप्यकारी हैं, इसलिए उनका व्यञ्जनावग्रह होता है। चतु प्राप्यकारी नही, इसलिए इसका व्यञ्जनावग्रह नहीं होता।