________________
४२]
जैन दर्शन में प्रमाण मीमासा
का साक्षात् गान होता है। उसे आत्म-प्रत्यक्ष, पारमार्थिक-प्रत्यक्ष या नोइन्द्रिय-प्रत्यक्ष कहते है।
(२) इन्द्रिय-प्रत्यक्ष
इन्द्रिय और मन की सहायता से जो जान होता है वह इन्द्रिय के लिए प्रत्यक्ष और आत्मा के लिए परोक्ष होता है, इसलिए उसे इन्द्रिय-प्रत्यक्ष या संव्यवहार प्रत्यक्ष कहते हैं । इन्द्रिया धूम आटि लिग का महाग लिए बिना अग्नि आदि का माक्षात् करती हैं, इसलिए यह इन्द्रिय-प्रत्यक्ष होता है।
प्राचार्य मिद्धसेन ने 'अपरोक्षतया अर्थ-परिच्छेटक जान' को प्रत्यन कहा है । इसमें 'अपरोद' शब्द विशेष महत्त्व का है। नैयायिक 'इन्द्रिय
और अर्थ के सन्निकर्प से उत्पन्न जान' को प्रत्यक्ष मानते हैं। आचार्य सिद्धसेन ने 'अपरोक्ष' शब्द के द्वारा उमसे असहमति प्रकट की है। इन्द्रिय के माध्यम से होने वाला शान आत्मा (प्रमाना ) के साक्षात् नहीं होता, इसलिए वह प्रत्यक्ष नहीं है । जान की प्रत्यक्षता के लिए अर्थ और उसके बीच अव्यवधान होना जरूरी है।
आचार्य सिद्धसेन की इस निश्चयमूलक दृष्टि का आधार भगवती और स्थानाङ्ग की प्रमाण-व्यवस्था है । प्राचार्य अकलंक की व्याख्या के अनुसारविशद ज्ञान प्रत्यक्ष है । अपरोक्ष के स्थान पर 'विशद' को 'लक्षण में स्थान देने का एक कारण है। आचार्य अकलक की प्रमाण-व्यवस्था में व्यवहारदृष्टि का भी आश्रयण है, जिसका आधार नन्दी की प्रमाण व्यवस्था है। इसके अनुसार प्रत्यक्ष के दो भेद होते हैं-मुख्य और सव्यवहार। मुख्य-प्रत्यक्ष, वही है, जो अपरोक्षतया अर्थ ग्रहण करे। संव्यवहार प्रत्यक्ष, में अर्थ का ग्रहण इन्द्रिय के माध्यम से होता है, उसमें 'अपरोक्षवया-अर्थ-ग्रहण' लक्षण नही बनता। इसलिए दोनो की संगति करने के लिए 'विशद' शब्द की योजना करनी पड़ी। ___ 'विशद' का अर्थ है-प्रमाणान्तर की अनपेक्षा (अनुमान आदि की अपेक्षा न होना) और 'यह है' ऐसा प्रतिभास होना । संव्यवहार-प्रत्यक्ष अनुमान आदि की अपेक्षा अधिक प्रकाशक होता है-'यह हैं ऐसा प्रतिभास होता है, इसलिए इसकी 'विशुद्धता' निर्वाध है।