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जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा १५ नो-आगम भाव के तीन रूप बनते हैं। इनमें यह अन्तर है कि द्रव्य मे नो शब्द सर्वथा आगम का निषेध बताता है और भाव एक देश में । द्रव्य-तद्व्यतिरिक्त का क्षेत्र सिर्फ क्रिया है और इसका क्षेत्र ज्ञान और क्रिया दोनो हैं। अध्यापन कराने वाला हाथ हिलाता है, पुस्तक के पन्ने उलटता है, इस क्रियात्मक देश में शान नहीं है और वह जो पढ़ाता है, उसमें ज्ञान है, इसलिए माव में 'नो शब्द' देशनिषेधवाची है।
निक्षेप के सभी प्रकारो की सव द्रव्यो मे सगति होती है, ऐसा नियम नही है। इसलिए जिनकी उचित संगति हो, उन्ही की करनी चाहिए। __पदार्थ मात्र चतुष्पर्यायात्मक होता है। कोई भी वस्तु केवल नाममय, केवल आकारमय, केवल द्रव्यता-श्लिष्ट और केवल भावात्मक नहीं होती।
निक्षेप
नाम
स्थापना
द्रव्य
तदाकार
अतदाकार आगम नोत्रागम
लौकिक कुमावनिक लोकोत्तर
स-शरीर
भव्य-शरीर
तद्व्यतिरिक्त
लौकिक कुमावनिक लोकोत्तर नय और निक्षेप __नय और निक्षेप का विषय-विषयी सम्बन्ध है। वाच्य और वाचक का सम्बन्ध तथा उसकी क्रिया नय से जानी जाती है। नामादि तीन निक्षेप द्रव्य-नय के विषय हैं, भाव पर्याय नय का। द्रव्यार्थिक नय का विषय द्रव्यअन्वय होता है। नाम, स्थापना और द्रव्य का सम्बन्ध चीन काल से होता है, इसलिए ये द्रव्यार्थिक के विषय बनते हैं। भाव में अन्वय नही होता । उसका सम्बन्ध केवल वर्तमान-पर्याय से होता है, इसलिए वह पर्यायार्थिक का विषय बनता है।