________________
जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा [१६९ और शब्दात्मक दोनो है किन्तु यहॉ उनकी शब्दात्मकता से प्रयोजन नहीं । पहले चार नयो में शब्द का काल, लिड, निरुक्ति आदि बदलने पर अर्थ नही. बदलता, इसलिए वे अर्थनय हैं। शब्दनयो में शब्द का कालादि वदलने-पर अर्थ वदल जाता है, इसलिए ये शब्दनय कहलाते हैं। नयविभाग का आधार
अर्थ या अभेद संग्रह दृष्टि का आधार है और भेद व्यवहार दृष्टि का। संग्रह भेद को नहीं मानता और व्यवहार अमेद को जगम का आधार है। अमेद और भेद एक पदार्थ में रहते हैं, ये सर्वथा दो नहीं हैं किन्तु गौण मुख्य . भाव.दो हैं। यह अभेद और भेद दोनों को स्वीकार करता है, एक साथ एक
रूप में नही । यदि एक साथ धर्म-धर्मी दोनो को या अनेक धर्मों को मुख्य मानता तो यह प्रमाण बन जाता किन्तु ऐसा नहीं होता। इस दृष्टि में मुख्यता एक की ही रहती है, दूसरा सामने रहता है किन्तु प्रधान बनकर नहीं। कभी धर्मी मुख्य वन जाता है, कभी धर्म और दो धर्मों की भी यही गति है। इसके राज्य में किसी एक के ही मस्तक पर मुकुट नहीं रहता। वह अपेक्षा या प्रयोजन के अनुसार बदलता रहता है।
जुसूत्र का आधार है-चरमभेद। यह पहले और पीछे को वास्तविक । नही मानता। इसका सूत्रण वडा सरल है। यह सिर्फ वर्तमान पर्याय को ही वास्तविक मानता है।
शब्द के भेद-रूप के अनुसार अर्थ का भेद होता है-यह शब्दनय का आधार है।
प्रत्येक शब्द का अर्थ भिन्न है, एक अर्थ के दो वाचक नही हो सकतेयह सममिरूद की मूल भित्ति है।
शब्दनय प्रत्येक शब्द का अर्थ भिन्न नहीं मानता। उसके मवमे एक शब्द के जो अनेक रूप बनते हैं, वे तभी बनते हैं जब कि अर्थ में भेद-होता है। यह दृष्टि उससे सूक्ष्म है। इसके अनुमार-शब्दभेद के अनुसार अर्थभेद होता
एवम्भूत का अभिप्राय विशुद्धतम है। इसके अनुसार अर्थ के लिए शब्द कायोरा उसकी प्रस्तुत किया के अनुसार होना चाहिए। समभिरुढ अर्थ की