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जैन दर्शन में प्रमाण मोमांसा .नहीं होता । जहाँ अभेद रूप प्रधान बनता है, वहाँ मेदस्प गौण बन जाता है
और जहाँ भेदरूप मुख्य बनता है, वहाँ भेदस्प गौण। भेद और भेद, जो पृथक् प्रतीत होते हैं, उसका कारण दृष्टि का गौण-मुख्य-भाव है, किन्तु उनके स्वस्प की पृथकता नहीं।
दूसरी दृष्टि में केवल अर्थ के अनन्त धर्मों के अभेद की विवक्षा मुख्य होती है। यह भेद से अभेद की ओर गति है। इसके अनुसार पदार्थ में सहभावी और क्रमभावी अनन्त-धर्म होते हुए भी वह एक माना जाता है। सजातीय पदार्थ संख्या में अनेक, असंख्य या अनन्त होने पर भी एक माने जाते हैं। विजातीय पदार्थ पृथक होते हुए भी पदार्थ की मत्ता में एक वन जाते हैं। यह मध्यम या अपर संग्रह वनता है। पर या उत्कृष्ट संग्रह में विश्व एक बन जाता है। अस्ति सामान्य से परे कोई पदार्थ नही। अस्तित्व की सीमा मे स्व एक वन जाते हैं, फलतः विश्व एक सद्-अविशेष या सत्-सामान्य बन जाता है।
यह इष्टि दो धनों की समानता से प्रारम्भ होती है और समूचे जगत् की समानता में इसकी परि समाप्ति होती है अभेद चरम कोटि तक नहीं पहुँचता, तव तक अपर-संग्रह चलता है।
तीसरी दृष्टि ठीक इससे विपरीत चलती है। वह अभेद से भेट की और जाती है। इन दोनों का क्षेत्र तुल्य है। केवल दृष्टि-मेट रहता है। दूसरी दृष्टि सब में अभेद ही अभेट देखती है और इसे सव में भेट ही भेट दीख पड़ता है। दूसरी अभेदाश-प्रधान या निश्चय-दृष्टि है, यह है भेदाग या उपयोगिता प्रधान हष्टि। द्रव्यत्व से कुछ नहीं बनता,- उपयोग उच्य ना होता है । गौत्व दूध नहीं देता, दूध गाय देती है।
चौथी दृष्टि चरम मेद की दृष्टि है। जैसे पर-संग्रह ने अभेद चरम कोटि तक पहुंच जाता है-विश्व एक बन जाता है, वैसे ही इसम मेद चरम वन जाता है। अपर-संग्रह और व्यवहार के ये दोनों निरे हैं। यहाँ ने उनका उद्गम होता है। . . यहां एक प्रश्न के लिए अवकाश है। स्पर-संग्रह को अन्नग नय ना