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१६२] जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा
(१) उपचार-बहुल-यहाँ गौण-वृत्ति से उपचार प्रधान होता है। जैसे-पर्वत जल रहा है यहाँ प्रचुर-दाह प्रयोजन है। मार्ग चल रहा हैयहाँ नैरन्तर्य प्रतीति प्रयोजन है।
(२) लौकिक-भौरा काला है। ऋजुसूत्र __ यह वर्तमानपरक दृष्टि है। यह अतीत और भविष्य की वास्तविक सत्ता स्वीकार नहीं करती। अतीत की क्रिया नष्ट हो चुकती है। भविष्य की क्रिया प्रारम्भ नही होती। इसलिए भूतकालीन वस्तु और भविष्यकालीन वस्तु न तो अर्थक्रिया-समर्थ (अपना काम करने में समर्थ ) होती है और न प्रमाण का विषय बनती है। वस्तु वही है जो अर्थक्रिया-समर्थ हो, प्रमाण का विषय बने । ये दोनो वातें वार्तमानिक वस्तु में ही मिलती है। इसलिए वही तात्विक सत्य है | अतीत और भविष्य मे 'तुला' तुला नही है। 'तुला' उसी समय तुला है, जब उससे तोला जाता है।।
इसके अनुसार क्रियाकाल और निष्ठाकाल का आधार एक द्रव्य नहीं हो सकता। साध्य-अवस्था और साधन अवस्था का काल भिन्न होगा, तव भिन्न काल का आधारभूत द्रव्य अपने आप भिन्न होगा। दो अवस्थाए' समन्वित नहीं होती। भिन्न अवस्थावाचक पदार्थों का समन्वय नही होता। इस प्रकार यह पौर्वापर्य, कार्य-कारण आदि अवस्थाओ की स्वतन्त्र सत्ता का समर्थन करने वाली दृष्टि है। शब्दनय
शब्दनय भिन्न-भिन्न लिङ्ग, वचन आदि युक्त शब्द के भिन्न-भिन्न अर्थ स्वीकार करता है। यह शब्द, रूप और उसके अर्थ का नियामक है। व्याकरण की लिङ्ग, वचन आदि की अनियामकता को यह प्रमाण नही करता। इसका अभिप्राय यह है :
(१) पुलिङ्ग का वाच्य अर्थ स्त्रीलिङ्ग का वाच्य अर्थ नहीं बन सकता। 'पहाई का जो अर्थ है वह पहाड़ी' शब्द व्यक्त नही कर सकता। इसी प्रकार - स्त्रीलिङ्ग का वाच्य अर्थ पुलिंग का वाच्य नहीं बनता। 'नदी के लिए