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जैन दर्शन में प्रमाण मोमासो
(१) शुद्धल्प है—अन्त्यस्वल्प-ज्यावृत्ति। (२) अशुद्धल्प है-अवान्तर-विशेष ।
संग्रह समन्वय की दृष्टि है और व्यवहार विभाजन की। ये दोनों दृष्टियाँ समानान्तर रेखा पर चलने वाली हैं किन्तु इनका गति-क्रम विपरीत है। संग्रह-दृष्टि सिमटती चलती है, चलते-चलते एक हो जाती है। व्यवहार दृष्टि खुलती चलती है-चलते-चलते अनन्त हो जाती है।
सिद्ध
संसारी
अयोगी सयोगी (१५ गुणस्थान) ।
बली छात्य
क्षीप मोह उपशान्त मोह
अकषापी (११ गुन०)
सत्यापी
भद-प्रधान ....................ध्ययहारम्नय
श्रभेद-प्रधान.................सग्रह-नय
सूक्ष्म कमायो वार कषायी
श्रेणी प्रतिपन्न श्रेपी पतिपत्र
(गुरा)
सम्पत्ती निवाली
मष्य
प्रन्यिमेटी