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जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा
वाह-जगत्-निरपेक्ष अपनी स्थिति भी अपेक्षा से मुक्त नहीं है। कारण कि पदार्थ अनन्त गुगो का सहज सामञ्चस्य है । उसके सभी गुण, धर्म या किया अपेक्षा की शृङ्खला में गूंथे हुए हैं। एक गुण की अपेक्षा पदार्य का जो स्वरूप है, वह उसकी अपेक्षा से है, दूसरे की अपेक्षा से नहीं। चेतन पदार्थ चैतन्य गुण की अपेक्षा से चेतन है किन्तु उसके सहभावी अस्तित्व, वस्तुन आदि गुणों की अपेक्षा से चेतन पदार्थ की चेतनशीलता नहीं है। अनन्त शक्तियो और उनके अनन्त कार्य या परिणामो की जो एक संकलना. समन्वय या शृंखला है वही पदार्थ है। इसलिए विविध शक्तियों और तज्जनित विविध परिणामो का अविरोधमाव सापेक्ष स्थिति में ही हो सकता है। नय का उद्देश्य
"सव्वेसि पिणयाणं, बहुविह वतव्वयं णिसामित्ता। तं सव्वणयविसुद्ध, जं चरणगुणष्टिनी साहू ॥"
भद्रबाहु आवश्यक नियुक्ति १०५५ चरण गुण-स्थिति परम माध्यस्थ्यरूप है। वह राग-द्वेप का विलय होने से मिलती है। निव का उद्देश्य है-माध्यस्थ्य बढ़े, मनुष्य विचारू सहिष्णु बने, (मानाप्रकार के विरोधी लगने वाले विचारों में समन्वय करने की योग्यता विकसित हो ।
कोई भी व्यक्ति सदा पदार्थ को एक ही दृष्टि से नहीं देखता। देश, काल और स्थितियों का परिवन होने पर दर्शक की दृष्टि में भी परिवर्तन होता है। यही स्थिति निरूपण की है। बता का मुकाव पदार्थ की ओर होगा वो उसकी वाणी का श्राकपण भी उसी की ओर होगा। यही बात पदार्थ की अवस्था के विषय में है। सुनने वाले को वक्ता की विवक्षा समझनी होगी। उसे समझने के लिए उसके पारिपाश्विक वातावरण, द्रव्य, क्षेत्र, काल र भाव को समझना होगा। विवक्षा के पांच रूप बनते हैं(१) द्रव्य की विवक्षा-दूध में ही मिठास और स्प आदि होते हैं। (२) पर्याय की विवक्षा. मिठास और रूप आदि ही दूध है। (३) द्रव्य के अस्तित्व मात्र की विवक्षाध है। (४) पर्याय के अस्तित्व मात्र की विवक्षा...मिठास है प आदि है।