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जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा ..(स-नय-प्रमाण ! . . . . .. . ...
(३) संख्या-प्रमाण।
एक धर्म का ज्ञान और एक धर्म का वाचक शब्द, ये दोनो नय) कहलाते हैं १९१ ज्ञानात्मक नय को 'नय' और वचनात्मक नय को 'नयवाक्य' या 'सद्वाद' कहा जाता है। .
नय-ज्ञान विश्लेषणात्मक होता है, इसलिए यह मानसिक ही होता है, ऐन्द्रियिक नही होता । नय से अनन्त धर्मक वस्तु के एक धर्म का बोध होता है। इससे जो बोध होता है, वह यथार्थ होता है, इसलिए यह प्रमाण है किन्तु इससे अखएड वस्तु नहीं जानी जानी। इसलिए यह पूर्ण प्रमाण नहीं बनता। यह एक समस्या बन जाती है। दार्शनिक आचार्यों ने इसे यूं सुलझाया कि अखण्ड वस्तु के निश्चय की अपेक्षा नया प्रमाण नहीं है । वह वस्तु-खण्ड को यथार्थ रूप से ग्रहण करता है, इसलिए अप्रमाण भी नहीं है अप्रमाण तो है ही नही पूर्णता की अपेक्षा प्रमाण भी नहीं है, इसलिए इसे प्रमाणांश कहना चाहिए।
अबण्डवस्तुमाही यथार्थ ज्ञान प्रमाण होता है, इस स्थिति में वस्तु को खण्डशः जानने वाला विचार नया प्रमाण का चिन्ह है-'स्यात् नय का चिह्न है-'सत्' । प्रमाणवाक्य को स्यावाद कहा जाता है और नय वाक्य को सदवाद । वास्तविक दृष्टि से प्रमाण स्वार्थ होता है और नय स्वार्य और परार्थ दोनो।)एक साथ अनेक धर्म कहे नहीं जा सकते, इसलिए प्रमाण का वाक्य नहीं बनता। वाक्य बने बिना परार्य कैसे बने ? प्रमाणवाक्य जो परार्थ वनता है, उसके दो कारण हैं :
(१) अमेदवृत्ति प्राधान्य। (२) अमेदोपचार। (व्यार्थिक नय के अनुसार धर्मों में अमेद होता है और पर्यायार्थिक की दृष्टि से उनमें भेद होने पर भी अभेदोपचार किया जाता है | इन दो निमित्तो से वस्तु के अनन्त धर्मों को अभिन्न मानकर एक गुण की मुख्यता से शखण्ड वस्तु का प्रतिपादन विवक्षित हो, तव प्रमाणवाक्य बनता है। यह