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जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा रूप दण्ड देना न्याय माना जाता है किन्तु अध्यात्म की अपेक्षा से वह न्याय नहीं है । वह दूसरे व्यक्ति को दण्ड देने के अधिकार को स्वीकार नहीं करता।
पी ही अपने अन्तःकरण से पाप का प्रायश्चित्त कर सकता है। प्रवृत्ति और निवृत्ति
प्रवृत्ति और निवृत्ति-ये दोनों आत्माश्रित धर्म हैं। परापेक्ष प्रवृत्ति और निवृत्ति वैभाविक होती हैं और सापेक्ष प्रवृत्ति और निवृत्ति स्वाभाविक । आत्मा की करण-वीर्य या शरीर-योग सहकृत जितनी प्रवृत्ति होती है, वह वैमाविक होती है | एक क्रियाकाल में दूसरी क्रिया की निवृत्ति होती है, यह म्वाभाविक निवृत्ति नहीं है। स्वाभाविक निवृत्ति है आत्मा की विभाव से मुक्ति-संयम | सहज प्रवृत्ति है आत्मा की पुद्गल-निरपेक्ष क्रिया (चित् और आनन्द का सहज उपयोग)।
शुद्ध आत्मा मे प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों सहज होती हैं। पदार्थ के जो सहज धर्म हैं उनमें अच्छाई-बुराई, हेय-उपादेय का प्रश्न ही नहीं बनता। यह प्रश्न परपदार्थ से प्रभावित धर्मों के लिए होता है। बद्ध आत्मा की प्रवृत्ति परपदार्थ से प्रभावित भी होती है, तब प्रश्न होता है "प्रवृत्ति कैसी है"-अच्छी है या बुरी ? हेय है या उपादेय ? निवृत्ति कैसी है-अप्रवृत्तिरूप या विरतिरूप ? अपेक्षादृष्टि के विना इनका समाधान नहीं मिलता। ___ सहज प्रवृत्ति और सहज निवृत्ति न हेय है और न उपादेय। वह आत्मा का स्वरूप है। स्वरूप न छूटता है और न बाहर से आता है। इसलिए वह हेय और उपादेय कैसे बने ? वैभाविक प्रवृत्ति दो प्रकार की होती है संयमप्रेरित और असंयम-प्रेरित । संयम-प्रेरित प्रवृत्ति आत्मा को संयम की ओर अग्रसर करती है, इसलिए वह साधन की अपेक्षा उपादेय वनंती है, वह भी सर्वांश मे मोक्ष दृष्टि की अपेक्षा । लोक-दृष्टि सर्वांश में उसे समर्थन न भी दे । 1. असंयम प्रेरित प्रवृत्ति आत्मा को बन्धन की ओर ले जाती है, इसलिए मोक्ष
की अपेक्षा वह उपादेय नहीं है । लोक दृष्टि को इसकी उपादेयता स्वीकार्य है। संयम-प्रेरित प्रवृत्ति शुद्धि का पक्ष है, इसलिए उसे लोक दृष्टि का बहुलाश में समर्थन मिलता है किन्तु असंयम-प्रेरित प्रवृत्ति मोक्ष-सिद्धि का पक्ष नहीं है, इसलिए उसे मोक्ष-दृष्टि का एकांश में भी समर्थन नहीं मिलता।