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जैन दर्शन में प्रमाण मीमासा
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पालन और संहार के निमित्त है-ब्रह्मा, विष्णु और महेश । जैन पदार्थ मान में उत्पाद, व्यय और प्रौव्य मानते हैं। पदार्थमात्र की स्थिति स्वनिमित्त से ही होती है। उत्पाद और व्यय स्वनिमित्त से होते ही हैं और परनिमित्त से भी होते हैं। चौद्ध उत्पाद और नाश मानते हैं। स्थिति सीधे शब्दो में नहीं मानते किन्तु सन्तति प्रवाह के रूप में स्थिति भी उन्हें स्वीकार करनी पड़ती है।
जगत् का सूक्ष्म या स्थूल रूप में उत्पाद, नाश और ध्रौव्य चल रहा है, इसमें कोई मतभेद नहीं। जैन-दृष्टि के अनुसार सत् पदार्थ निरूप हैं और वैदिक दृष्टि के अनुसार ईश्वर त्रिरूप है । मतभेद सिर्फ इसकी प्रक्रिया में है। निमित्त के विचार-भेद से इस प्रक्रिया को नैयायिक दृष्टिवाद, जैन 'परिणामि-नित्यवाद' और बौद्ध 'प्रतीत्यसमुत्पाद वाद' कहते हैं। यह कारणमैट प्रतीक परक है, सत्यपरक नहीं । प्रतीक के नाम और कल्पनाएँ भिन्न हैं किन्तु तथ्य की स्वीकारोक्ति भिन्न नहीं है। इस प्रकार अनेक दार्शनिक तथ्य है, जिन पर विचार किया जाए तो उनके केन्द्रविन्दु पृथक्-पृथक् नहीं जान पड़ते। __ भौगोलिक क्षेत्र में चलिए, प्राच्य भारतीय ज्योतिष के अनुसार पृथ्वी को स्थिर और सूर्य को चर माना जाता है। सूर्य-सिद्धान्त के अनुसार सूर्य स्थिर है और पृथ्वी चर। कोपरनिकस पृथ्वी को स्थिर और सूर्य को चर मानता था।
वर्तमान विज्ञान के अनुसार सूर्य को स्थिर और पृथ्वी को चर माना जाता है | आइन्स्टीन के अपेक्षावाद के अनुसार पृथ्वी चर है, सूर्य स्थिर या सूर्य चर है और पृथ्वी स्थिर, यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता | व्यवहार में जो सूर्य को स्थिर और पृथ्वी को चर माना जाता है, वह उनकी दृष्टि में गणित की सुविधा है, इसलिए वे कहते हैं-यह हमारा निश्चयवाद नही किन्तु सुविधावाद है । ग्रहण आदि निष्कर्ष दोनों गणित-पद्धतियो से समान निकलते हैं, इसलिए वस्तु स्थिति का निश्चय इन्द्रियशान से सम्भव नहीं . वनता। किन्तु भावी प्रत्यक्ष परिणाम को व्यक्त करने की पद्धति की अपेक्षा से किसी को भी असत्य नहीं माना जा सकता।